कैस्पियन समुद्र के निकट अजरबैजान देश में था ज्वालाजी का अद्भुत मंदिर. बाकू आतेशगाह या ज्वालाजी मंदिर अज़रबेजान की राजधानी बाकू के पास के सुराख़ानी शहर में स्थित एक मध्यकालीन हिन्दू धार्मिक स्थल है। मिडिल ईस्ट एशिया में कैस्पियन सागर के तट पर बसा हुआ एक देश है अजरबैजान (Azerbaijan), बाकू(Baku) इसकी राजधानी है। यह एक इस्लामिक राष्ट्र है और यहाँ की अधिक जनता मुस्लिम है।
बाकू शहर अपनी तूफानी हवाओं के लिए भी प्रसिद्ध है यहाँ कभी-कभी तो हवायें इतनी तीव्र गति से चलती हैं कि इसमें मवेशी भेड़-बकरियाँ तक उड़ जाती हैं। यहाँ पर स्थित इस हिन्दू अग्नि मंदिर में एक पंचभुजा (पेंटागोन) अकार के अहाते के बीच में एक मंदिर है। इसी मंदिर के मंडप में निरंतर अग्नि जला करती थी. बाहरी दीवारों के साथ कमरे बने हुए हैं जिनमें कभी सौ से अधिक पुजारी जनों व उपासकों के रहने की व्यवस्था थी.
मंदिर निर्माण की तिथि
हिन्दू धर्म अग्नि पूजा का विशेष महत्व है. बाकू ज्वाला जी मंदिर की दीवारों में जड़ा एक शिलालेख, जिसकी पहली पंक्ति 'श्री गणेसाय नमः' से शुरू होती है. इसपर विक्रम संवत १८०२ की तिथि है जो १७४५-४६ ईसवी के बराबर है . अरबियन आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त इस धार्मिक स्थल को 18वीं शताब्दी के अंत में मुल्तान के हिन्दू व्यापारियों ने इसका जीर्णोद्धार किया.
डॉ सर जीवनजी जमशेदजी मोदी की यात्रा
डॉ सर जीवनजी जमशेदजी मोदी ने अपनी पुस्तक 'माइ ट्रेवल्स आउटसाइड बॉम्बे-ईरान, अज़रबैजान,बाकू' में उन्होंने इस स्थल को पारसी धर्मस्थल की अपेक्षा हिन्दू मंदिर के प्रमाण के रूप में ही अनुभव किया.
मास्को के संग्रहालय में मिले प्रमाण
18 सितम्बर 1925 को मोस्को की अपनी यात्रा में लेनिन संग्रहालय में एक मंडप में बाकू ज्वालाजी के अग्निकुंड के सामने आसन लगाए हुए एक ब्राह्मण की मूर्ति देखी, जो लकड़ियों से अग्नि जला कर पूजा कर रहा है. उस ब्राह्मण के माथे पर लाल तिलक लगा हुआ है. संग्राहलय के ही विवरण पट्टिका में स्पष्ट उल्लेख हुआ कि इस मंदिर का सम्बन्ध त्रितापों को हरने वाले शिव से है.
हिन्दू शिलालेख
बाकू ज्वाला जी का निर्माण यूँ तो वैदिक काल से भी माना जाता है. यहाँ से प्राप्त एक शिलालेख में संस्कृत भाषा में लिखी हिन्दू देवता की स्तुति है, जिससे पता चलता है कि हिन्दू धर्म के अनुयायीयों के प्रभाव में यह स्थल रहा होगा.
सुरखानी स्थित इस बाकू ज्वालाजी मंदिर के मुख्य द्वार के सामने ऊपर की ओर के एक शिलालेख जिसकी 9 पंक्तिया है. उनके ऊपर दो पंक्तियों में हिन्दू धार्मिक चिन्ह उत्कीर्ण हैं. प्रथम पंक्ति में दाएं से बायीं ओर एक पुष्प, एक घंटा, सूर्य, अग्नि का गोला, फिर अंत में एक पुष्प. दूसरी पंक्ति में क्रमशः पुष्प, त्रिशूल, स्वस्तिक, पुनः त्रिशूल और अंत में पुनः एक पुष्प बना हुआ है. मुख्य द्वार पर हिन्दू प्रतीकों के होने से इसके एक प्राचीन वैदिक मंदिर होने का प्रमाण मिलता है. इन शिलालेख में श्री गणेशाय नमः व श्री ज्वालाजी का उल्लेख होने से यह हिन्दू मंदिर के दावे को और मजबूत करता है.
संग्रहालय बना दिया है अज़रबैजान सरकार ने
अज़रबैजान सरकार ने अब इसे एक संग्राहलय बना दिया गया और अब इसे देखने हर वर्ष १५,००० सैलानी आते हैं। २००७ में अज़रबेजान के राष्ट्रपति के आदेश से इसे एक राष्ट्रीय ऐतिहासिक-वास्तुशिल्पीय आरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया.
भारतीय निवासी और तीर्थयात्री
मध्यकाल के अंत में पूरे मध्य एशिया में भारतीय समुदाय फैले हुए थे | बाकू में पंजाब के मुल्तान क्षेत्र के लोग, आर्मेनियाई लोगों के साथ-साथ, व्यापार पर हावी थे | कैस्पियन सागर पर चलने वाले समुद्री जहाज़ों पर लकड़ी का काम भी भारतीय कारीगर ही किया करते थे |
बहुत से इतिहासकारों की सोच है कि बाकू के इसी भारतीय समुदाय के लोगों ने आतेशगाह को बनवाया होगा या किसी पुराने ढाँचे कि मरम्मत कर के इसे मंदिर बना लिया होगा |
जैसे-जैसे यूरोपीय विद्वान मध्य एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप में आने लगे, उन्हें अक्सर इस मंदिर पर और उत्तर भारत और बाकू के बीच सफ़र करते हिन्दू भक्त मिल जाया करते थे |
प्राचीन परम्परा है सात छिद्रों की जलती ज्वालाओं का पूजन
ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार, १७वीं सदी के अंत में सुराख़ानी में भारतीय आतिशगाह बनने से पहले स्थानीय लोग भी इस 'सात छिद्रों की जलती ज्वालाओं' के स्थान पर पूजा किया करते थे" |
हिन्दू या पारसी मंदिर
अग्नि को हिन्द-ईरानी की हिन्दू वैदिक धर्म और पारसी धर्म की दोनों शाखाओं में पवित्र माना जाता है - हिन्दू लोग इसे 'अग्नि' कहते हैं और पारसी लोग इसके लिए 'आतर' सजातीय शब्द प्रयोग करते हैं | इस कारणवश विवाद रहा है कि आतेशगाह एक हिन्दू मंदिर है या पारसी आतिशकदा। मंदिर के ऊपर चढ़ा त्रिशूल वैसे तो हिन्दू धर्म कि निशानी होती है और पारसी विद्वानों ने इसकी जांच करके इसे एक हिन्दू स्थल बताया है, लेकिन एक अज़ेरी पेशकश के अनुसार यह संभवतः पारसी धर्म के तीन 'अच्छे विचार, अच्छे बोल, अच्छे कर्म' गुणों का प्रतीक भी हो सकता है |
जोनस हैनवे का मत
जोनस हैनवे (१७१२-१७८६) नामक एक १८वीं सदी के यूरोपीय समीक्षक ने पारसियों और हिन्दुओं को एक ही श्रेणी का बताते हुए कहा कि 'यह मत बहुत ही कम बदलाव के साथ प्राचीन भारतीयों और ईरानियों में, जिन्हें गेबेर या गौर कहते हैं, चले आ रहे हैं और वे अपने पूर्वजों के धर्म कि रक्षा में बहुत अग्रसर रहते हैं, विशेषकर अग्नि की मान्यता बनाए रखने में' |
'गेबेर' बनाम गौड़ ब्राह्मण
'गेबेर' पारसियों के लिए एक फ़ारसी शब्द है जबकि गौड़ हिन्दू ब्राह्मणों की एक जाति होती है | उसके बाद आने वाले एक विख्यात विद्वान, ए॰ वी॰ विलयम्ज़ जैकसन ने इन दोनों समुदायों को भिन्न बताते हुए आतेशगाह के अनुयायियों की वेशभूषा, तिलकों, शाकाहारी भोजन और गौ पूजन के वर्णन के बारे में कहा कि 'हैनवे जिन चीज़ों की बात कर रहे थे वे स्पष्ट रूप से भारतीय हैं, पारसी नहीं' | फिर भी उन्होंने कहा कि सम्भव है कि हिन्दू उपासकों के बड़े समुदाय के बीच हो सकता है कि इक्के-दुक्के 'असली गेबेर (यानि ज़र्थुष्टी या पारसी)' भी उपस्थित रहें हों |
हिमाचल की ज्वाला देवी
निष्कर्ष में मुस्लिम देश में इस अग्नि मंदिर के हिन्दू संस्कृति से जुड़े होने में कोई संदेह नहीं रहा | हिमाचल के ज्वाला देवी का मंदिर की तरह यह भी हिन्दुओं के लिए आस्था का केंद्र है |