महर्षि वेद व्यास जी ने महा भारत के अन्त में स्वर्गारोहण अध्याय में युधिष्ठिर द्वारा इन्द्रप्रस्थ हस्तिनापुर राज्य के त्याग के पश्चात् हिमालय गमन का उल्लेख किया है | जब युधिष्ठिर पैदल ही अपने चारों एक भाईयों और द्रोपदी को लेकर बद्रीनाथ से आगे अलका पूरी हिमालय में बढ़ने लगे, तब उन हिम श्रृंखला में द्रोपदी सहित एक-एक करके चारों भाई भूमि पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुए |
केवल एक कुत्ता जीवित रहा जो पांडवों के नगर से निकलते ही उनके साथ-साथ चल रहा था | यात्रा के अंतिम पड़ाव में युधिष्ठिर के साथ स्वामी भक्त वह कुत्ता ही रहा | दुर्गम पर्वतों को पार करके वे हिमालय के सप्त रोहिणी शिखर पर जा पहुंचे | फिर युधिष्ठिर स्वर्गारोहण का संकल्प किया तो स्वयं इन्द्र प्रकट हुए | फिर एक तार्किक व रोचक वार्तालाप के उपरांत इंद्र ने युधिष्ठिर और उस कुत्ते को अपने रथ में बैठाया और स्वर्ग में प्रवेश कर गए |
इंद्र के विशेष तेज से युक्त धर्मराज युधिष्ठिर सशरीर ही स्वर्ग में पहुंचे | वहां देवताओं ने उनका स्वागत सत्कार किया | युधिष्ठिर ने देखा कि वहां दुष्ट दुर्योधन एक दिव्य सिंहासन पर बैठ कर आनंद कर रहा है, अन्य कोई वहां नहीं है | यह देखकर युधिष्ठिर ने देवताओं से कहा कि मेरे भाई तथा द्रौपदी जिस गति को प्राप्त हुए हैं, मैं भी उसी लोक में जाना चाहता हूं, मुझे उनसे अधिक उत्तम लोक की कामना नहीं है | तब देवताओं ने कहा कि यदि आपकी ऐसी ही इच्छा है तो आप इस देवदूत के साथ चले जाइए | यह आपको आपके भाइयों के पास पहुंचा देगा | युधिष्ठिर उस देवदूत के साथ चले गए |
देवदूत युधिष्ठिर को ऐसे मार्ग पर ले गया, जो बहुत खराब था |
बहुत ही दुर्गन्ध भरे उस मार्ग पर घोर अंधकार था | किन्तु आसपास भयानक रूप वाली आत्माएं दिखाई दे रही रही | कहीं मुर्दे पड़े हुए थे | लोहे की चोंच वाले कौए और गिद्ध मंडरा रहे थे | देव दूत ने बताया कि यह असिपत्र नामक नरक हैं | वहां शवों की दुर्गंध से तंग आकर युधिष्ठिर ने देवदूत से पूछा कि हमें इस मार्ग पर और कितनी दूर चलना है और मेरे भाई कहां हैं? युधिष्ठिर की बात सुनकर देवदूत बोला कि देवताओं ने कहा था कि जब आप थक जाएं तो आपको तुरंत ही लौटा लाऊ | यदि आप थक गए हों तो हम पुन: लौट चलते हैं | युधिष्ठिर ने सहमती दी |
जब युधिष्ठिर वापस लौटने लगे तो उन्हें दुखी लोगों की आवाज सुनाई दी, वे युधिष्ठिर से कुछ देर वहीं रुकने के लिए कह रहे थे | युधिष्ठिर ने जब उनसे उनका परिचय पूछा तो उन्होंने कर्ण, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव व द्रौपदी के रूप में अपना परिचय दिया | युधिष्ठिर ने कुछ चिंतन किया, फिर उस देवदूत से कहा कि तुम पुन: देवताओं के पास लौट जाओ, मेरे यहां रहने से यदि मेरे भाइयों को सुख मिलता है तो मैं इस नरक पर ही रहूंगा | देवदूत ने यह बात जाकर देवराज इंद्र को बता दी |
युधिष्ठिर को उस स्थान पर अभी कुछ ही समय बीता था कि मार्ग पर प्रकाश छा गया | सभी देवता वहां आ गए | देवताओं के आते ही वहां सुगंधित हवा चलने लगी |
तब देवराज इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि तुमने अश्वत्थामा के मरने की बात कहकर छल से द्रोणाचार्य को उनके पुत्र की मृत्यु का विश्वास दिलाया था | इसी के परिणाम स्वरूप तुम्हें भी छल से ही कुछ देर नरक के दर्शन पड़े | अब तुम मेरे साथ स्वर्ग चलो | वहां तुम्हारे भाई व धर्म युद्ध में प्राण उत्सर्ग करने वाले अनेक वीर पहले ही पहुंच गए हैं |
वेद व्यास जी महाभारत का उपसंहार पांडवों के स्वर्गारोहण के साथ किया | एक मत के अनुसार यह अंतिम भाग काल्पनिक है. ऊपर आकाश में या अन्यत्र कहीं भी स्वर्ग नरक नहीं है | सभी जीवों को अपने कर्मों का हिसाब किताब इसी धरती में जन्म लेकर ही भोगना पड़ता है. स्वर्ग नरक की अवधारणा सभी पंथों में चलती है | मृत्यु उपरान्त स्वर्ग नरक में गति की कथाएँ चलाने के पीछे ऋषियों मुनियों का अभिप्राय यही हो सकता है कि मनुष्य अपने कर्मों के प्रति स्वयं ही सचेत रहे |
हमारी आत्मिक चेतना व संचित कर्मों के अभिलेख
विचार से कर्म और कर्म से पुनः विचार की एक श्रृंखला हमारे चित्त का हिस्सा बन जाती है | चित्त के दो स्तर है - एक सूक्ष्म शरीर मन, बुद्धि और अहंकार के साथ हमारे आज्ञा चक्र के प्राण तल से जुड़ा रहता है, ये चित्त स्वयं में एक शरीर है, एक जीवन की योजना के रूप में अवतरित है | दूसरा सहस्रार चक्र के व्योम आकाश से परे हिरण्यगर्भ चित्रगुप्त पुरुष के समष्टि प्राण शरीर के आकाशिक अभिलेखों में कहीं होता है |
यहाँ जो चित्त है वह अद्भुत ज्ञान कोष का भण्डार है. विराट स्मृतियों को समेटे हुए है | भावी जन्मों की धुंधली छाया को छिपाए हुए है | पूरा का पूरा संचित कर्मों का लेखा जोखा इसी आकाशिक अभिलेखों की चित्त स्मृति में है |
जो जीवन हमें मिला है वह प्रारब्ध है. जीवन में अनायास आने वाले जय-पराजय, सुख-दुःख, मान-अपमान, हानि-लाभ, मिलना-बिछुड़ना और खोना-पाना ये प्रारब्ध और क्रियमाण कर्मों का परिणाम हो सकता है, इसके ऊपर हमारी भौतिक चेतना सक्रिय रहती है, परन्तु जो समष्टि आकाश में छिपा है उस 'संचित चित्त' के पीछे आत्मिक चेतना का वास है |
यदि उस आत्मिक चेतना के तल पर हम पहुँच जाए और ध्यान दें तो पाएंगें कि हम अपने इस जीवन को साक्षी भाव से देख में सक्षम होने लगे हैं | इस साक्षी भाव में हमारा यह जीवन हमें एक पहले से लिखी हुई कहानी की तरह लगने लगेगा | ऐसा भी लगता है कि यह सब हम पहले भी अनुभव कर चुके हैं, क्योंकि हमारी आत्मिक चेतना संचित चित्त की योजनाओं को पहले से ही जानती है | परन्तु नए जीवन के भोग में हम भूल जाते हैं, हम मायावी प्रभाव से इस जीवन को सबकुछ मान लेते हैं |
संचित कर्मफलों के भण्डार 'चित्त' से एक जीवन के लिए प्रबल इच्छाओं के अनुरूप कर्मफल के अनुसार प्रारब्ध अर्थात् भाग्य का निर्धारण होता है | यह नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में हर घटना पूर्व निर्धारित नहीं होती, कुछ नए क्रियमाण कर्म और विशेष भक्ति, तप-दान व सिद्ध महापुरुषों के आशीर्वाद से वो सब कामनाएं भी पूर्ण हो जाती है, जो भाग्य में नहीं होती. परन्तु मनुष्य जीवन का उद्देश्य भौतिक इच्छाओं की पूर्ति नहीं है, अपितु आत्मा की चैतन्य शक्ति का विस्तार करना है. जन्म-जन्मान्तर के प्रयासों से हम बहुत थोड़ी से आध्यात्मिक उन्नति कर पाते है | योग-मार्ग से भटककर फिर संसार के प्रपंच में उलझे हुए जीवन के बहुमूल्य समय को नष्ट कर देते हैं | जो हर जन्म में होता है, वैसा इस बार ऐसा न हो, आत्मा जाग कर फिर से ना सो जाए, इसलिए उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई ! अब रैन कहां जो सोवत है....
अध्यात्म की दिशा में कदम रखने वालों को निश्चित ही दैवीय सहायता प्राप्त होती है |
महा कुण्डलिनी
आदि शंकराचार्य जी द्वारा रचित ईशोपनिषद् के संस्कृत भाषा अनुवाद का हिंदी रूपान्तर सुने