अर्धा ते अन्तमानां विद्याम सुमीनाम्।
मा नो अतिख्य आर्गहि॥३॥
अर्था ते। अन्तमानाम्। विद्याम। सुमतीनाम्। मा। नः। अतिख्यः। आ। गहि॥३॥
पदार्थ:-(अथ) अनन्तरार्थे। निपातस्य चेति दीर्घः। (ते) तव (अन्तमानाम्) अन्तः सामीप्यमेषामस्ति तेऽन्तिका, अतिशयेनान्तिका अन्तमास्तत्समागमेन। अत्रान्तिकशब्दात्तमपि कृते पृषोदरादित्वात्तिकलोपः। अन्तमानामित्यन्तिकनामसु पठितम्। (निघं०२.१६) (विद्याम) जानीयाम (सुमतीनाम्) वेदादिशास्त्रे परोपकारे धर्माचरणे च श्रेष्ठा मतिर्येषां मनुष्याणाम्। मतय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघ०२.३) (मा) निषेधार्थे (न:) अस्मान् (अतिख्यः) उपदेशोल्लङ्घनं मा कुर्याः (आगहि) आगच्छ॥३॥
अन्वयः-हे परमैश्वर्यावन्निन्द्र परमेश्वर! वयं ते तवान्तमानामर्थात्त्वां ज्ञात्वा त्वन्निकटे त्वदाज्ञायां च स्थितानां सुमतीनामाप्तानां विदुषां समागमेन त्वां विजानीयाम। त्वन्नोऽस्मानागच्छास्मदात्मनि प्रकाशितो भव। अथान्तर्यामितया स्थितः सन्सत्यमुपदेशं मातिख्यः कदाचिदस्योल्लङ्घनं मा कुर्य्याः॥३॥ ___
भावार्थ:-यदा मनुष्या धार्मिकाणां विद्वत्तमानां सकाशाच्छिक्षाविद्ये प्राप्नुवन्ति तदा नैव पृथिवीमारभ्य परमेश्वरपर्यन्तान् पदार्थान् विदित्वा सुखिनो भूत्वा पुनस्ते कदाचिदन्तर्यामीश्वरोपदेशं विहायेतस्ततो भ्रमन्तीति॥३॥ ___
पदार्थ:-हे परम ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर ! (ते) ___ भावार्थ:-जब मनुष्य लोग इन धार्मिक श्रेष्ठ विद्वानों के समागम से शिक्षा और विद्या को प्राप्त होते हैं, तभी पृथिवी से लेकर परमेश्वरपर्य्यन्त पदार्थों के ज्ञान द्वारा नाना प्रकार से सुखी होके फिर वे अन्तर्यामी ईश्वर के उपदेश को छोड़कर कभी इधर-उधर नहीं भ्रमते॥३॥ तत्समीपे स्थित्वा मनुष्येण किं कर्त्तव्यम्, ते च तान् प्रति किं कुर्युरित्युपदिश्यते। मनुष्य लोग विद्वानों के समीप जाकर क्या करें और वे इनके साथ कैसे वर्ते, इस विषय का उपदेश ईश्वर ने अगले मन्त्र में किया हैपरहि विमस्तृतमिन्द्रं पृच्छा विपश्चितम्। आपके (अन्तमानाम्) निकट अर्थात् आपको जानकर आपके समीप तथा आपकी आज्ञा में रहनेवाले विद्वान् लोग, जिन्हों की (सुमतीनाम्) वेदादिशास्त्र परोपकाररूपी धर्म करने में श्रेष्ठ बुद्धि हो रही है, उनके समागम से हम लोग (विद्याम) आपको जान सकते हैं, और आप (नः) हमको (आगहि) प्राप्त अर्थात् हमारे आत्माओं में प्रकाशित हूजिये, और (अथ) इसके अनन्तर कृपा करके अन्तर्यामिरूप से हमारे आत्माओं में स्थित हुए (मातिख्यः) सत्य उपदेश को मत रोकिये, किन्तु उसकी प्रेरणा सदा किया कीजिये॥३॥___
भावार्थ:-जब मनुष्य लोग इन धार्मिक श्रेष्ठ विद्वानों के समागम से शिक्षा और विद्या को प्राप्त होते हैं, तभी पृथिवी से लेकर परमेश्वरपर्य्यन्त पदार्थों के ज्ञान द्वारा नाना प्रकार से सुखी होके फिर वे अन्तर्यामी ईश्वर के उपदेश को छोड़कर कभी इधर-उधर नहीं भ्रमते॥३॥
तत्समीपे स्थित्वा मनुष्येण किं कर्त्तव्यम्, ते च तान् प्रति किं कुर्युरित्युपदिश्यते।
मनुष्य लोग विद्वानों के समीप जाकर क्या करें और वे इनके साथ कैसे वर्ते, इस विषय का उपदेश ईश्वर ने अगले मन्त्र में किया है