कवी नौ मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया। दक्षं दधाते अपसम्॥९॥४॥
कवी। नः। मित्रावरुणा। तुव॒ऽजाती। उसऽक्षयादाम्। धाते। अपसम्॥९॥
पदार्थ:-(कवी) क्रान्तदर्शनौ सर्वव्यवहारदर्शनहेतू। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा। (निरु०१२.१३) एतन्निरुक्ताभिप्रायेण कविशब्देन सुखसाधको मित्रावरुणौ गृह्यते। (न:) अस्माकम् (मित्रावरुणौ) पूर्वोक्तौ (तुविजातौ) बहुभ्यः कारणेभ्यो बहुषु वोत्पन्नौ प्रसिद्धौ। तुवीति बहुनामसु पठितम्। (निघ०३.१) (उरुक्षया) बहुषु जगत्पदार्थेषु क्षयो निवासो ययोस्तौ। अत्र सुपां सुलुगित्याकारः। उर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघ०३.१) 'क्षि निवासगत्योः' अस्य धातोरधिकरणार्थः क्षयशब्दः। (दक्षम्) बलम् (दधाते) धरतः (अपसम्) कर्म। अप इति कर्मनामसु पठितम्। (निरु० २.१) व्यत्ययो बहुलमिति लिङ्गव्यत्ययः । इदमपि सायणाचार्येण न बुद्धम्॥९॥
अन्वयः-इमौ तुविजातावुरुक्षयौ कवी मित्रावरुणौ नोऽस्माकं दक्षमपसं च दधाते धरतः॥९॥
भावार्थ:-ब्रह्माण्डस्थाभ्यां बलकर्मनिमित्ताभ्यामेताभ्यां सर्वेषां पदार्थानां सर्वचेष्टाविद्यायोः पुष्टिधारणे भवत इति॥९॥
आदिमसूक्तोक्तेन शिल्पविद्यादिमुख्यनिमित्तेनाग्निनार्थेन सहचरितानां वाविन्द्रमित्रवरुणानां द्वितीयसूक्तोक्तानामर्थानां सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्।
इदमपि सूक्तं सायणाचार्यादिभियूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातमिति बोध्यम्॥
इति द्वितीयं सूक्तं वर्गश्च चतुर्थः समाप्तः॥
पदार्थ:-(तुविजातौ) जो बहुत कारणों से उत्पन्न और बहुतों में प्रसिद्ध (उरुक्षया) संसार के बहुत से पदार्थों में रहनेवाले (कवी) दर्शनादि व्यवहार के हेतु (मित्रावरुणा) पूर्वोक्त मित्र और वरुण हैं, वे (न:) हमारे (दक्षम्) बल तथा सुख वा दुःखयुक्त कर्मों को (दधाते) धारण करते हैं।॥९॥ भावार्थ:-जो ब्रह्माण्ड में रहनेवाले बल और कर्म के निमित्त पूर्वोक्त मित्र और वरुण हैं, उनसे क्रिया और विद्याओं की पुष्टि तथा धारणा होती है।॥९॥ जो प्रथम सूक्त में अग्निशब्दार्थ का कथन किया है, उसके सहायकारी वायु, इन्द्र, मित्र और वरुण के प्रतिपादन करने से प्रथम सूक्तार्थ के साथ इस दूसरे सूक्तार्थ की सङ्गति समझ लेनी।
इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य्यादि और विलसन आदि यूरोपदेशवासी लोगों ने अन्यथा कथन किया है
यह दूसरा सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ।