ऐसा माना जाता है कि सृष्टि के प्रारम्भ में अग्नि के उस रूप की स्तुति करते हैं जो यज्ञ के निमित्त प्रकट की जाती है
अथादिमस्य नवर्चस्य सूक्तस्य मधुच्छन्दा ऋषिः। अग्निर्देवता। गायत्री छन्दः। षड्जः स्वरः॥
____
तत्राद्ये मन्त्रेऽग्निशब्देनेश्वरेणात्मभौतिकावर्षावुपदिश्यते।
यहां प्रथम मन्त्र में अग्नि शब्द करके ईश्वर ने अपना और भौतिक अर्थ का उपदेश किया है
अग्निमीळे पुरोहितं य॒ज्ञस्य॑ दे॒वमृत्विज॑म्होतारं रत्नधातमम्॥१॥
अग्निम्ईळे। पुरःहितम्। य॒ज्ञस्य॑। देवम्। ऋत्विजम्। होारम्। रत्नऽधातमम्॥ १॥
पदार्थ:-(अग्निम्) परमेश्वरं भौतिकं वा-इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गुरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्य॒ग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः॥ (ऋ० १.१६४.४६)
अनेनैकस्य सतः परब्रह्मण इन्द्रादीनि बहुधा नामानि सन्तीति वेदितव्यम्। तदेवाग्निस्तादित्यस्तद्वायुस्तदं चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स प्र॒जाप॑तिः॥ (य०३२.१)
यत्सच्चिदानन्दादिलक्षणं ब्रह्म तदेवात्राग्न्यादिनामवाच्यमिति बोध्यम्। ब्रह्म ह्यग्निः। (श० ब्रा० १.४.२.११)
आत्मा वा अग्निः। (श० ब्रा०१.२.३.२)
अत्राग्निब्रह्मात्मनोर्वाचकोऽस्ति। अयं वा अग्निः प्रजाश्च प्रजापतिश्च(श० ब्रा०९.१.२.४२)
अत्र प्रजाशब्देन भौतिकः प्रजापतिशब्देनेश्वरश्चाग्निह्यः। अग्निर्वे देवानां व्रतपतिः। एतद्धः वै देवा व्रतं चरन्ति यत्सत्यम्। (श०ब्रा० १.१.१.२.५)
सत्याचारनियमपालनं व्रतं तत्पतिरीश्वरः। त्रिभिः पवित्रैरपुपोद्ध्यर्क हुदा मति ज्योतिर, प्रजानन्। वर्षिष्ठं रत्नमकृत स्वधाभिरादिद् द्यावापृथिवी पर्यपश्यत्॥ (ऋ०३.२६.८)
अत्राग्निशब्दस्यानुवृत्तेः प्रजानन्निति ज्ञानवत्त्वात् पर्य्यपश्यदिति सर्वज्ञत्वादीश्वरो ग्राह्यः।
यास्कमुनिरत्रोभयार्थकरणायाग्निशब्दपुरःसरमेतन्मन्त्रमेवं व्याचष्टे-अग्निः कस्मादग्रणी-र्भवत्यग्रं यज्ञेषु प्रणीयतेऽङ्गं नयति सन्नममानोऽक्नापनो भवतीति स्थौलष्ठीविन क्नोपयति न स्नेहयति त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायत इति शाकपूणिरितादक्ताद्दग्धाद्वा नीतात्स खल्वेतेरकारमादत्ते गकारमनक्तेर्वा दहतेर्वा नी: परस्तस्यैषा भवतीति-अग्निमीळेऽग्निं याचामीळेरध्येषणाकर्मा पूजाकर्मा वा देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा ह्युस्थानो भवतीति वा यो देवः सा देवता। होतारं ह्वातारं जुहोतेर्होतारित्योर्णवाभो रत्नधातमं रमणीयानां धनानां दातृतमम्। (निरु०७.१४-१५)।
अग्रणीः सर्वोत्तमः सर्वेषु यज्ञेषु पूर्वमीश्वरस्यैव प्रतिपादनात्तस्यात्र ग्रहणम्। दग्धादिति विशेषणाद्भौतिकस्यापि च
प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि। रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम्॥१॥
एतमेके वदन्त्यग्नि मनुमन्ये प्रजापतिम्। इन्द्रमेकेऽपरे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम्॥२॥ (मनु०१२.१२२-१२३)
अत्राप्यग्न्यादीनि परमेश्वरस्य नामानि सन्तीति। ईळे अग्निं विपश्चितं गिरा य॒ज्ञस्य॒ साधनम्। श्रुष्टीवानं धितावानम्॥ (ऋ०३.२७.२)
विपश्चितमीळे इति विशेषणादग्निशब्देनात्रेश्वरो गृह्यते, अनन्तविद्यावत्त्वाच्चेतनस्वरूपत्वाच्च।
अथ केवलं भौतिकार्थग्रहणाय प्रमाणानि-यदश्वं तं पुरस्ताददश्रयंस्तस्याभयेनाष्ट्र निवातेऽग्निरजायत तस्माद्यत्राग्नि मस्थिष्यन्त्स्यात्तदश्वमानेतवै ब्रूयात्। स पूर्वेणोपतिष्ठते वज्रमेवैतदुच्छ्रयन्ति तस्याभयेनाष्ट्रे निवातेऽग्निर्जायते। (श० ब्रा०२.१.४.१६)
वृषो अग्निः। अश्वो ह वा एष भूत्वा देवेभ्यो
यज्ञं वहति। (श० ब्रा०१.३.३.२९-३०
वृषवद्यानानां वोढत्वाद् वृषोऽग्निः तथाऽयमग्निराशुगमयितृत्वेनाश्वो भूत्वा कलायन्त्रैः प्रेरितः सन् देवेभ्यो विद्वद्भयः शिल्पविद्याविद्भयो मनुष्येभ्यो विमानादियानसाधनसङ्गतं यानं वहति प्रापयतीति। तूर्णिर्हव्यवाडिति। (श० ब्रा० १.३.४.१२)
अयमग्निर्हव्यानां यानानां प्रापकत्वेन शीघ्रतया गमकत्वाद्धव्यवाट् तूर्णिश्चेति। अग्निर्वे योनिर्यज्ञस्य। (श०ब्रा० १.४.३.११
इत्याद्यनेकप्रमाणैर श्वनाम्ना भौतिकोऽग्निर्वात्र गृह्यते, आशुगमनहेतुत्वादश्वोऽग्निर्विज्ञेयःवृषो अग्निः समिध्यतेऽश्वो न देववाहनः। तं हविष्म॑न्त ईळते॥ (ऋ०३.२७.१४)
यदा शिल्पिभिरयमग्निर्यन्त्रकलाभिर्यानेषु प्रदीप्यते तदा देववाहनो देवान् यानस्थान् विदुषः शीघ्र देशान्तरेऽश्व इव वृष इव च प्रापयति, ते हविष्मन्तो मनुष्या वेगादिगुणवन्तमश्वमग्निमीडते कार्य्यार्थमधीच्छन्तीति वेद्यम्(ईळे)
स्तुवे याचे अधीच्छामि प्रेरयामि वा (पुरोहितम्) पुरस्तात्सर्वं जगद्दधाति छेदनधारणाकर्षणादिगुणांश्चापि तम्पुरोहित: पुर एनं दधति होत्राय वृतः कृपायमाणोऽन्वध्यायत्(निरु०२.१२)
(यज्ञस्य) इज्यतेऽसौ यज्ञस्तस्य महिम्नः कर्मणो विदुषां सत्कारस्य सङ्गतस्य सत्सङ्गत्योत्पन्नस्य विद्यादिदानस्य शिल्पक्रियोत्पाद्यस्य वा। यज्ञाः कस्मात्प्रख्यातं यजति कर्मेति नैरुक्ता याञ्चो भवतीति वा यजुरुन्नो भवतीति वा बहुकृष्णाजिन इत्यौपमन्यवो यजूंष्येनं नयन्तीति वा। (निरु०३.१९)
(देवम्) दातारं हर्षकरं विजेतारं द्योतकं वा
(ऋत्विजम्) य ऋतौ ऋतौ प्रत्युत्पत्तिकालं संसारं सङ्गतं यजति करोति तथा च शिल्पसाधनानि सङ्गमयति सर्वेषु ऋतुषु यजनीयस्तम्। ऋत्विग्दधृग्० (अष्टा०३.२.५९)
अनेन कर्त्तरि निपातनम्, तथा कृतो बहुलमिति कर्मणि वा। (होतारम्) दातारमादातारं वा (रत्नधातमम्) रमणीयानि पृथिव्यादीनि सुर्वर्णादीनि च रत्नानि दधाति धापयतीति रत्नधा, अतिशयेन रत्नधा इति रत्नधातमस्तम्॥१॥
अन्वयः-अहं यज्ञस्य पुरोहितमृत्विजं होतारं रत्नधातमं देवमग्निमीळे॥१॥
भावार्थ:-अत्र श्लेषालङ्कारेणोभयार्थग्रहणमस्तीति बोध्यम्। इतोऽग्रे यत्र यत्र मन्त्रभूमिकायामुपदिश्यत इति क्रियापदं प्रयुज्यतेऽस्य सर्वत्र कर्तेश्वर एव बोध्यः। कुतः, वेदानां तेनेवोक्तत्वात् पितृवत्कृपायमाण ईश्वरः सर्वविद्याप्राप्तये सर्वजीवहितार्थं वेदोपदेशं चकार। यथा पिताऽध्यापको वा स्वपुत्रं शिष्यं च प्रति त्वमेवं वदैवं कुरु सत्यं वद पितरमाचायं च सेवस्वानृतं मा कुर्वित्युपदिशति, तथैवात्र बोध्यम्। वेदश्च सर्वजीवकल्याणार्थमाविर्भूतः। एवमर्थोऽत्रोत्तम- पुरुषप्रयोगः। वेदोपदेशस्य परोपकारार्थत्वात्अत्राग्निशब्देन परमार्थव्यवहारविद्यासिद्धये परमेश्वर भौतिको द्वावर्थों गृह्यते। पुरा आद्यैर्याऽश्वविद्यानाम्ना शीघ्रगमनहेतुः शिल्पविद्या सम्पादितेति श्रूयते साग्निविद्यौवासीत्। परमेश्वरस्य स्वयंप्रकाशत्वसर्वप्रकाशकत्वाभ्यामनन्तज्ञानवत्त्वात् भौतिकस्य रूपदाहप्रकाशवेगछेदनादिगुणवत्त्वाच्छिल्पविद्यायां मुख्यहेतुत्वाच्च प्रथमं ग्रहणं कृतमस्तीति वेदितव्यम्॥१॥
पदार्थान्वयभाषा-
(यज्ञस्य) हम लोग विद्वानों के सत्कार सङ्गम महिमा और कर्म के (होतारम्) देने तथा ग्रहण करनेवाले (पुरोहितम्) उत्पत्ति के समय से पहिले परमाणु आदि सृष्टि के धारण करने और (ऋत्विजम्) वारंवार उत्पत्ति के समय में स्थूल सृष्टि के रचनेवाले तथा ऋतु-ऋतु में उपासना करने योग्य (रत्नधातमम्) और निश्चय करके मनोहर पृथिवी वा सुवर्ण आदि रत्नों के धारण करने वा (देवम्) देने तथा सब पदार्थों के प्रकाश करनेवाले परमेश्वर की (ईळे) स्तुति करते हैं |
तथा उपकार के लिये (यज्ञस्य) हम लोग (विद्यादि) दान और शिल्पक्रियाओं से उत्पन्न करने योग्य पदार्थों के (होतारम्) देनेहारे तथा (पुरोहितम्) उन पदार्थों के उत्पन्न करने के समय से पूर्व भी छेदन धारण और आकर्षण आदि गुणों के धारण करने वाले (ऋत्विजम्) शिल्पविद्या साधनों के हेतु (रत्नधातमम्) अच्छे-अच्छे सुवर्ण आदि रत्नों के धारण कराने तथा (देवम्) युद्धादिकों में कलायुक्त शस्त्रों से विजय करानेहारे भौतिक अग्नि की (ईळे) वारंवार इच्छा करते हैं।
यहां 'अग्नि' शब्द के दो अर्थ करने में प्रमाण ये हैं कि-(इन्द्रं मित्रं०) इस ऋग्वेद के मन्त्र से यह जाना जाता है कि एक सदब्रह्म के इन्द्र आदि अनेक नाम हैं। तथा (तदेवाग्नि०) इस यजुर्वेद के मन्त्र से भी अग्नि आदि नामों करके सच्चिदानन्दादि लक्षणवाले ब्रह्म को जानना चाहिये। (ब्रह्म ह्य०) इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के प्रमाणों से अग्नि शब्द ब्रह्म और आत्मा इन दो अर्थों का वाची है। (अयं वा०) इस प्रमाण में अग्नि शब्द से प्रजा शब्द करके भौतिक और प्रजापति शब्द से ईश्वर का ग्रहण होता है।
(अग्नि०) इस प्रमाण से सत्याचरण के नियमों का जो यथावत् पालन करना है सो ही व्रत कहाता है, और इस व्रत का पति परमेश्वर है। (त्रिभिः पवित्रैः०) इस ऋग्वेद के प्रमाण से ज्ञानवाले तथा सर्वज्ञ प्रकाश करनेवाले विशेषण से अग्नि शब्द करके ईश्वर का ग्रहण होता है |
निरुक्तकार यास्कमुनि जी ने भी ईश्वर और भौतिक पक्षों को अग्नि शब्द की भिन्न-भिन्न व्याख्या करके सिद्ध किया है, सो संस्कृत में यथावत् देख लेना चाहिये, परन्तु सुगमता के लिये कुछ संक्षेप से यहां भी कहते हैं। यास्कमुनिजी ने स्थौलाष्ठीवि ऋषि के मत से अग्नि शब्द का अग्रणी=सब से उत्तम अर्थ किया है अर्थात् जिसका सब यज्ञों में पहिले प्रतिपादन होता है, वह सब से उत्तम ही है। इस कारण अग्नि शब्द से ईश्वर तथा दाहगुणवाला भौतिक अग्नि इन दो ही अर्थों का ग्रहण होता है___
___
(प्रशासितारं०; एतमे०) मनुजी के इन दो श्लोकों में भी परमेश्वर के अग्नि आदि नाम प्रसिद्ध हैं। (ईळे०) इस ऋग्वेद के प्रमाण से भी उस अनन्त विद्यावाले और चेतनस्वरूप आदि गुणों से युक्त परमेश्वर का ग्रहण होता है।
अब भौतिक अर्थ के ग्रहण में प्रमाण दिखलाते हैं--(यदश्वं०) इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के प्रमाणों से अग्नि शब्द करके भौतिक अग्नि का ग्रहण होता है | यह अग्नि बैल के समान सब देशदेशान्तरों में पहुंचानेवाला होने के कारण वृष और अश्व भी कहाता है, क्योंकि वह कलाओं के द्वारा अश्व अर्थात् शीघ्र चलानेवाला होकर शिल्पविद्या के जानने वाले विद्वान् लोगों के विमान आदि यानों को वेग से वाहनों के समान दूर-दूर देशों में पहुंचाता है। (तूर्णि०) इस प्रमाण से भी भौतिक अग्नि का ग्रहण . क्योंकि वह उक्त शीघ्रता आदि हेतओं से हव्यवाट और तर्णि भी कहाता है।
(अ इत्यादिक और भी अनेक प्रमाणों से अश्व नाम करके भौतिक अग्नि का ग्रहण किया गया है। (वृषो०) जब कि इस भौतिक अग्नि को शिल्पविद्यावाले विद्वान् लोग यन्त्रकलाओं से सवारियों में प्रदीप्त करके युक्त करते हैं, तब (देववाहन:) उन सवारियों में बैठे हुए विद्वान् लोगों को देशान्तर में बैलों वा घोड़ों के समान शीघ्र पहुंचानेवाला होता है। हे मनुष्यो! तुम लोग (हविष्मन्तम्) वेगादि गुणवाले अश्वरूप अग्नि के गुणों को (ईळते) खोजो। इस प्रमाण से भी भौतिक अग्नि का ग्रहण है॥१॥ भावार्थभाषा-इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार से दो अर्थों का ग्रहण होता है। पिता के समान कृपाकारक परमेश्वर सब जीवों के हित और सब विद्याओं की प्राप्ति के लिये कल्प-कल्प की आदि में वेद का उपदेश करता है। जैसे पिता वा अध्यापक अपने शिष्य वा पुत्र को शिक्षा करता है कि तू ऐसा कर वा ऐसा वचन कह, सत्य वचन बोल, इत्यादि शिक्षा को सुनकर बालक वा शिष्य भी कहता है कि
सत्य बोलूंगा, पिता और आचार्य की सेवा करूंगाशिष्य वा लड़कों को उपदेश करते हैं, वैसे ही 'क्योंकि ईश्वर ने वेद सब जीवों के उत्तम सुख सत्य बोलूंगा, पिता और आचार्य की सेवा करूंगा, झूठ न कहूंगा, इस प्रकार जैसे परस्पर शिक्षक लोग शिष्य वा लड़कों को उपदेश करते हैं, वैसे ही 'अग्निमीळे०' इत्यादि वेदमन्त्रों में भी जानना चाहियेक्योंकि ईश्वर ने वेद सब जीवों के उत्तम सुख के लिये प्रकट किया है। इसी 'अग्निमीळे०' वेद के उपदेश का परोपकार फल होने से इस मन्त्र में 'ईडे' यह उत्तम पुरुष का प्रयोग भी है। ___
(अग्निमीळे०) परमार्थ और व्यवहार विद्या की सिद्धि के लिये अग्नि शब्द करके परमेश्वर और भौतिक ये दोनों अर्थ लिये जाते हैं। जो पहिले समय में आर्य लोगों ने अश्वविद्या के नाम से शीघ्र गमन का हेतु शिल्पविद्या उत्पन्न की थी, वह अग्निविद्या की ही उन्नति थी। आप ही आप प्रकाशमान सब का प्रकाश और अनन्त ज्ञानवान् आदि हेतुओं से अग्निशब्द करके परमेश्वर, तथा रूप दाह प्रकाश वेग छेदन आदि गुण और शिल्पविद्या के मुख्य साधक आदि हेतुओं से प्रथम मन्त्र में भौतिक अर्थ का ग्रहण किया सत्य बोलूंगा, पिता और आचार्य की सेवा करूंगा, झूठ न कहूंगा, इस प्रकार जैसे परस्पर शिक्षक लोग शिष्य वा लड़कों को उपदेश करते हैं, वैसे ही 'अग्निमीळे०' इत्यादि वेदमन्त्रों में भी जानना चाहियेक्योंकि ईश्वर ने वेद सब जीवों के उत्तम सुख के लिये प्रकट किया है। इसी 'अग्निमीळे०' वेद के उपदेश का परोपकार फल होने से इस मन्त्र में 'ईडे' यह उत्तम पुरुष का प्रयोग भी है। ___(अग्निमीळे०) परमार्थ और व्यवहार विद्या की सिद्धि के लिये अग्नि शब्द करके परमेश्वर और भौतिक ये दोनों अर्थ लिये जाते हैं। जो पहिले समय में आर्य लोगों ने अश्वविद्या के नाम से शीघ्र गमन का हेतु शिल्पविद्या उत्पन्न की थी, वह अग्निविद्या की ही उन्नति थी। आप ही आप प्रकाशमान सब का प्रकाश और अनन्त ज्ञानवान् आदि हेतुओं से अग्निशब्द करके परमेश्वर, तथा रूप दाह प्रकाश वेग छेदन आदि गुण और शिल्पविद्या के मुख्य साधक आदि हेतुओं से प्रथम मन्त्र में भौतिक अर्थ का ग्रहण किया है ॥१॥