स्वाहा॑ य॒ज्ञं कृणोत्नेन्द्राय यज्वनो गृहे।
तत्र देवाँ उप ह्वये॥१२॥२५॥
स्वाहा। य॒ज्ञम्। कृणोतन। इन्द्राया यज्वनः। गृहे। तत्री दे॒वान्। उपा ह्वये॥ १२॥
पदार्थः-(स्वाहा) या सत्क्रियासमूहास्ति तया (यज्ञम्) त्रिविधम् (कृणोतन) कुरुत। अत्र तकारस्थाने तनबादेशः(इन्द्राय) परमैश्वर्याकरणाय (यज्वनः) यज्ञाऽनुष्टातुः। अत्र सुयजोर्ध्वनिप्। (अष्टा०३.२.१०३) अनेन 'यज' धातोवनिप् प्रत्ययः। (गृहे) निवासस्थाने यज्ञशालायां कलाकौशलसिद्धविमानादियानसमूहे वा (तत्र) तेषु कर्मसु (देवान्) परमविदुषः (उप) निकाटार्थे (ह्वये) आह्वये॥१२॥
स्वाहा॑ य॒ज्ञं कृणोत्नेन्द्राय यज्वनो गृहे।
तत्र देवाँ उप ह्वये॥१२॥२५॥
स्वाहा। य॒ज्ञम्। कृणोतन। इन्द्राया यज्वनः। गृहे। तत्री दे॒वान्। उपा ह्वये॥ १२॥
पदार्थः-(स्वाहा) या सत्क्रियासमूहास्ति तया (यज्ञम्) त्रिविधम् (कृणोतन) कुरुत। अत्र तकारस्थाने तनबादेशः(इन्द्राय) परमैश्वर्याकरणाय (यज्वनः) यज्ञाऽनुष्टातुः। अत्र सुयजोर्ध्वनिप्। (अष्टा०३.२.१०३) अनेन 'यज' धातोवनिप् प्रत्ययः। (गृहे) निवासस्थाने यज्ञशालायां कलाकौशलसिद्धविमानादियानसमूहे वा (तत्र) तेषु कर्मसु (देवान्) परमविदुषः (उप) निकाटार्थे (ह्वये) आह्वये॥१२॥
अन्वयः-हे शिल्पकारिण ऋत्विजो! यथा यूयं यत्र यज्वनो गृह इन्द्राय देवानाहूय स्वाहा यज्ञं कृणोतन तथा तत्राऽहं तानुपह्वये।१२॥
भावार्थ:-अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या विद्याक्रियावन्तो भूत्वा सम्यग्विचारेण क्रियासमूहजन्यं कर्मकाण्डं गृहे गृहे नित्यं कुर्वन् तत्र च विदुषामाह्वानं कृत्वा स्वयं वा तत्समीपं गत्वा तद्विद्याक्रियाकौशले स्वीकुर्वन्तु। नैव कदाचिद्युष्माभिरालस्येनेते उपेक्षणीये इति परमेश्वर उपदिशति॥१२॥
अस्य त्रयोदशसूक्तार्थस्याग्न्यादिदिव्यपदार्थोपकारग्रहणार्थोक्तरीत्या द्वादशसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्।
इदमपि सूक्तं सायणाचार्यादिभियूरोपदेशवासिभिर्विलसनादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्॥
इति त्रयोदशं सूक्तं पञ्चविंशो वर्गश्च समाप्तः॥
पदार्थ:-हे शिल्पविद्या के सिद्ध यज्ञ करने और करानेवाले विद्वानो! तुम लोग जैसे जहां (यज्वन:) यज्ञकर्ता के (गृहे) घर यज्ञशाला कलाकुशलता से सिद्ध किये हुए विमान आदि यानों में (इन्द्राय) परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिये परम विद्वानों को बुलाके (स्वाहा) उत्तम क्रियासमूह के साथ (यज्ञम्) जिस तीनों प्रकार के यज्ञ को (कृणोतन) सिद्ध करनेवाले हों, वैसे वहां मैं (देवान्) उन उक्त चतुर श्रेष्ठ विद्वानों को (उपह्वये) प्रार्थना के साथ बुलाता रहूं॥१२॥
भावार्थ:-मनुष्य लोग विद्या तथा क्रियावान् होकर यथायोग्य बने हुए स्थानों में उत्तम विचार से क्रियासमूह से सिद्ध होनेवाले कर्मकाण्ड को नित्य करते हुए और वहां विद्वानों को बुलाकर वा आप ही उनके समीप जाकर उनकी विद्या और क्रिया की चतुराई को ग्रहण करें। हे सज्जन लोगो! तुमको विद्या और क्रिया की कुशलता आलस्य से कभी नहीं छोड़नी चाहिये, क्योंकि ऐसी ही ईश्वर की आज्ञा सब मनुष्यों के लिये हैं।१२॥
इस तेरहवें सूक्त के अर्थ की अग्नि आदि दिव्य पदार्थों के उपकार लेने के विधान से बारहवें सूक्त के अभिप्राय के साथ सङ्गति जाननी चाहिये।
यह भी सूक्त सायणाचार्य आदि तथा यूरोपदेशवासी विलसन आदि साहबों ने विपरीत ही
यह तेरहवां सूक्त और पच्चीसवां वर्ग पूरा हुआ।।