प्र वो भ्रियन्त इन्दवो मत्सरा मादयिष्णवः।
द्रप्सा मध्व॑श्चमूर्षदः॥४॥
प्रा वः। भ्रियन्ते। इन्दवः। मत्सराः। मादयष्णवः। द्रप्साः। मध्वः। चमूषदः॥४॥
पदार्थ:-(प्र) प्रकृष्टार्थे (व:) युष्मभ्यम् (भियन्ते) ध्रियन्ते (इन्दवः) रसवन्तः सोमाद्यौषधिगणाः (मत्सराः) माद्यन्ति हर्षन्ति यैस्ते। अत्र कृधूमदिभ्यः कित्। (उणा०३.७१) अनेन मदे: सरन् प्रत्ययः(मादयिष्णवः) हर्षनिमित्ताः। अत्र णश्छन्दसि। (अष्टा०३.२.१३७) अनेन ण्यन्तान्मदेरिष्णुच् प्रत्ययः(द्रप्साः) दृप्यन्ति संहृष्यन्ते बलानि सैन्यानि वा यैस्ते। अत्र दृप हर्षणमोहनयोः इत्यस्माद्बाहुलकात्करणकारक औणादिकः सः प्रत्ययः। (मध्वः) मधुरगुणवन्तः (चमूषदः) ये चमूषु सेनासु सीदन्ति ते अत्र कृतो बहुलम् इति वार्त्तिकमाश्रित्य सत्सूद्विष० (अष्टा०३.२.६१) अनेन करणे क्विप्। कृषिचमितनि० (उणा०१.८१) अनेन चमूशब्दश्च सिद्धः। चमन्त्यदन्ति विनाशयन्ति शत्रुबलानि याभिस्ताश्चम्वः॥४॥ __
अन्वयः-हे मनुष्या! यथा मया वो युष्मभ्यं पूर्वमन्त्रोक्तैरिन्द्राभिरेव मध्वो मत्सरा मादयिष्णवो द्रप्साश्चमूषद इन्दवः प्रभ्रियन्ते प्रकृष्टतया ध्रियन्ते तथा युष्माभिरपि मदर्थमेते सम्यग्धाऱ्याः॥४॥
भावार्थ:-ईश्वरोऽभिवदति-मया धारितैर्मद्रचितैः पूर्वमन्त्रप्रतिपादितैर्विादादिभिर्ये सर्व पदार्थाः पोष्यन्ते ये तेभ्यो वैद्याकशिल्पशास्त्ररीत्या प्रकृष्टरसोत्पादनेन शिल्पकार्यसिद्धयोत्तमसेनासम्पादनाद् रोगनाशविजयप्राप्तिं कुर्वन्ति तैर्विविध आनन्दं भुञ्जते इति॥४॥
पदार्थ:-हे मनुष्यो! जैसे मैंने धारण किये, पूर्व मन्त्र में इन्द्र आदि पदार्थ कह आये हैं, उन्हीं से (मध्वः) मधुर गुणवाले (मत्सराः) जिनसे उत्तम आनन्द को प्राप्त होते हैं (मादयिष्णवः) आनन्द के निमित्त (द्रप्साः) जिन से बल अर्थात् सेना के लोग अच्छी प्रकार आनन्द को प्राप्त होते और (चमूषदः) जिनसे विकट शत्रुओं की सेनाओं से स्थिर होते हैं, उन (इन्दवः) रसवाले सोम आदि ओषधियों केसमूह के समूहों को (व:) तुम लोगों के लिये (भ्रियन्ते) अच्छी प्रकार धारण कर रक्खे हैं, वैसे तुम लोग भी मेरे लिये इन पदार्थों को धारण करो॥४॥
भावार्थ:-ईश्वर सब मनुष्यों के प्रति कहता है कि जो मेरे रचे हुए पहिले मन्त्र में प्रकाशित किये बिजुली आदि पदार्थों से ये सब पदार्थ धारण करके मैंने पुष्ट किये हैं, तथा जो मनुष्य इनसे वैद्यक वा शिल्पशास्त्रों की रीति से उत्तम रस के उत्पादन और शिल्प कार्यों की सिद्धि के साथ उत्तम सेना के सम्पादन होने से रोगों का नाश तथा विजय की प्राप्ति करते हैं, वे लोग नाना प्रकार के सुख भोगते हैं॥४॥
अथाग्निशब्देनेश्वर उपदिश्यते।
अब अगले मन्त्र में अग्निशब्द से ईश्वर का उपदेश किया है