अश्विना पिबतं मधु दीद्यग्नी शुचिव्रता
ऋत्ना यज्ञवाहसा॥११॥
अश्विना। पिबतम्। मधु। दीय॑ग्नीइति दीदिऽअग्नी। शुचिऽवृताऋतुना। यज्ञऽवाहा।११॥
पदार्थ:-(अश्विना) सूर्याचन्द्रमसौ। सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः सर्वत्र। (पिबतम्) पिबतः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (मधु) मधुरं रसम् (दीद्यग्नी) दीदिर्दीप्तिहेतुरग्निर्ययोस्तौ (शुचिव्रता) शुचिः पवित्रकरं व्रतं शीलं ययोस्तौ (ऋतुना) ऋतुभिः सह (यज्ञवाहसा) यज्ञान् हुतद्रव्यान् वहतः प्रापयतस्तौ॥११॥ अन्वयः-हे विद्वांसो! यूयं यो शुचिव्रता यज्ञवाहसा दीाग्नी अश्विनौ मधु पिबतं पिबत ऋतुना ऋतुभिः सह रसान् गमयतस्तौ विजानीत।।११।
भावार्थ:-ईश्वर उपदिशति-मया यो सूर्याचन्द्रमसावित्यादिसंयुक्तौ द्वौ द्वौ पदार्थों कार्यसिद्धयर्थमीश्वरेण संयोजितो, हे मनुष्या! युष्माभिस्तो सम्यक् सर्वर्तुकं सुखं व्यवहारसिद्धिं च प्रापयत इति बोध्यम्॥११॥
पदार्थ:-हे विद्वान् लोगो! तुमको जो (शुचिव्रता) पदार्थों की शुद्धि करने (यज्ञवाहसा) होम किये हुए पदार्थों को प्राप्त कराने तथा (दीद्यग्नी) प्रकाशहेतुरूप अग्निवाले (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा (मधु) मधुर रस को (पिबतम्) पीते हैं, जो (ऋतुना) ऋतुओं के साथ रसों को प्राप्त करते हैं, उनको यथावत् जानो।।११॥
भावार्थ:-ईश्वर उपदेश करता है कि मैंने जो सूर्य चन्द्रमा तथा इस प्रकार मिले हुए अन्य भी दो-दो पदार्थ कार्यों की सिद्धि के लिये संयुक्त किये हैं, हे मनुष्यो! तुम अच्छी प्रकार सब ऋऋतुओं के सुख तथा व्यवहार की सिद्धि को प्राप्त करते हो, इनको सब लोग समझें।।११॥ ___
पुनरपि भौतिकाग्निगुणा उपदिश्यन्ते।
फिर भी भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है