नराशंसं सुधृष्टममपश्यं स॒प्रथस्तमम्।
दिवो न सञमखसम्॥९॥३५॥
नराशंसम्। सुऽधृष्टमम्। अपश्यम्। सप्रथःऽतमम्। दिवः। न। साऽमखसम्॥९॥
पदार्थः-(नराशंसम्) नरैरवश्यं स्तोतव्यस्तम्नराशंसो यज्ञ इति कात्थक्यो नरा अस्मिन्नासीनाः शंसन्त्यग्निरिति शाकपूणिर्नरैः प्रशस्यो भवति। (निरु०८.६) (सुधृष्टमम्) सुष्टु सकलं जगद्धारयति सोऽतिशयितस्तम् (अपश्यम्) पश्यामिअत्र लडर्थे लङ्। (सप्रथस्तमम्) यः प्रथोभिर्विस्तृतैराकाशादिभिस्सहाभिव्याप्तो वर्त्तते सोऽतिशयितस्तम् (दिवः) सूर्यादिप्रकाशान् (न) इव (सद्ममखसम्) सीदन्ति यस्मिन् तत्सद्म जगत् तन्मखः प्राप्तं यस्मिन्निति॥९॥ __
भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। यथा मनुष्यः सर्वतो विस्तृतं सूर्यादिप्रकाशं पश्यति, तथैव सर्वतोऽभिव्याप्तं ज्ञानप्रकाशं परमेश्वर ज्ञात्वा विस्तृतसुखो भवतीति। अत्र सप्तममन्त्रात् ‘सदसस्पति'रिति पदमनुवर्तते।।९॥ पूर्वेण सप्तदशसूक्तार्थेन मित्रावरुणाभ्यां सहानुयोगित्वादत्र बृहस्पत्याद्यर्थानां प्रतिपादनादष्टादशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्यादिभियूरोपदेशनिवासिभिर्विलसनादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्।। ___
इत्यष्टादशं सूक्तं पञ्चत्रिंशो वर्गश्च समाप्तः॥९॥
पदार्थः-मैं (न) जैसे आकाशमय सूर्य्यादिकों के प्रकाश से (सद्ममखसम्) जिसमें प्राणी स्थिर होते और जिसमें जगत् प्राप्त होता है, (सप्रथस्तमम्) जो बड़े-बड़े आकाश आदि पदार्थों के साथ अच्छी प्रकार व्याप्त (सुधृष्टमम्) उत्तमता से सब संसार को धारण करने (नराशंसम्) सब मनुष्यों को अवश्य स्तुति करने योग्य पूर्वोक्त (सदसस्पतिम्) सभापति परमेश्वर को (अपश्यम्) ज्ञानदृष्टि से देखता हूं, वैसे तुम भी सभाओं के पति को प्राप्त होके न्याय से सब प्रजा का पालन करके नित्य दर्शन करो॥९॥ __
भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य सब जगह विस्तृत हुए सूर्य्यादि के प्रकाश को देखता है, वैसे ही सब जगह व्याप्त ज्ञान प्रकाशरूप परमेश्वर को जानकर सुख के विस्तार को प्राप्त होता है। इस मन्त्र में सातवें मन्त्र से 'सदसस्पतिम्' इस पद की अनुवृत्ति जाननी चाहिये॥९॥
पूर्व सत्रहवें सूक्त के अर्थ के साथ मित्र और वरुण के साथ अनुयोगि बृहस्पति आदि अर्थों के प्रतिपादन से इस अठारहवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये।
यह भी सूक्त सायणाचार्य आदि और यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने कुछ का कुछ ही वर्णन किया है
यह अठारहवां सूक्त और पैंतीसवां वर्ग पूरा हुआ।