अथ नवर्चस्यैकोनविंशस्य सूक्तस्य काण्वो मेधातिधिषिः। अग्निर्मरुतश्च देवताः। १, ३-८
गायत्री; २ निचूद्गायत्री; ९ पिपीलिकामध्यानिवृद्गायत्री च छन्दः। षड्जः स्वरः॥
तत्रादौ भौतिकाग्निगुणा उपदिश्यन्ते।
अब उन्नीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहले मन्त्र में अग्नि के गुणों का उपदेश किया है
प्रति॒ि त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय॒ प्र हूंयसे
मरुद्भिरग्न आ गहि॥१॥
प्रति। त्य॑म्। चारुम्। अध्वरम्। गोऽपीथाय। प्रा हुयसे। मुरुत्ऽभिः। अ॒ग्ने। आ| गृहि।॥ १॥
पदार्थ:-(प्रति) वीप्सायाम् (त्यम्) तम् (चारुम्) श्रेष्ठम् (अध्वरम्) यज्ञम् (गोपीथाय) पृथिवीन्द्रियादीनां रक्षणाय। निशीथगोपीथावगथाः। (उणा०२.९) अनेनायं निपातितः। (प्र) प्रकृष्टार्थे (हूयसे) अध्वरसिद्धयर्थं शब्दाते। अत्र व्यत्ययः। (मरुद्भिः) वायुविशेषैः सह (अग्ने) भौतिकः (आ) समन्तात् (गहि) गच्छति। अत्र व्यत्ययो लडथे लोट। बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च॥१॥
अन्वयः-योऽग्निर्मरुद्भिः सहागहि समन्तात्प्राप्नोति स विद्वद्भिस्त्यं तं चारुमध्वरं प्रति गोपीथाय प्रहूयसे प्रकृष्टतया शब्द्यते।।१।।
भावार्थ:-यो भौतिकोऽग्निः प्रसिद्धविधुदूपेण वायुभ्यः प्रदीप्यते सोऽयं विद्वद्भिः प्रशस्तबुद्धया प्रतिक्रियासिद्धिः सर्वस्य रक्षणाय तद्गुणज्ञानपुरःसरमुपदेष्टव्यः श्रोतव्यश्चेति॥१॥
पदार्थ:-जो (अग्ने) भौतिक अग्नि (मरुद्भिः) विशेष पवनों के साथ (आगहि) सब प्रकार से प्राप्त होता है, वह विद्वानों की क्रियाओं से (त्यम्) उक्त (चारुम् अध्वरम् प्रति) प्रत्येक उत्तम-उत्तम यज्ञ में उनकी सिद्धि वा (गोपीथाय) अनेक प्रकार की रक्षा के लिये (प्रहूयसे) अच्छी प्रकार क्रिया में युक्त किया जाता है।॥१॥ ___
भावार्थ:-जो यह भौतिक अग्नि प्रसिद्ध सूर्य और विद्युत्रूप करके पवनों के साथ प्रदीप्त होता है, वह विद्वानों की प्रशंसनीय बुद्धि से हर एक क्रिया की सिद्धि वा सबकी रक्षा के लिये गुणों के विज्ञानपूर्वक उपदेश करना वा सुनना चाहिये॥१॥
अथाग्निशब्देनेश्वरभौतिकगुणा उपदिश्यन्ते।
अगले मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश किया है