अ॒पां नपातमव॑से सवितारमुप॑ स्तुहि।
तस्य॑ वृतान्युश्मसि॥६॥
अपाम्। नातम्। अव॑से। सवितारम्। उप। स्तुहितस्या वृतानिउश्मसि॥६॥
पदार्थः-(अपाम्) ये व्याप्नुवन्ति सर्वान् पदार्थानन्तरिक्षादयस्तेषां प्रणेतारम् (नपातम्) न विद्याते पातो विनाशो यस्येति तम्। नभ्रानपान्नवेदा० (अष्टा०६.३.७५) अनेनाऽयं निपातितः। (अवसे) रक्षणाद्याय (सवितारम्) सकलैश्वर्य्यप्रदम् (उप) सामीप्ये (स्तुहि) प्रशंसय (तस्य) जगदीश्वरस्य (व्रतानि) नियतधर्मयुक्तानि कर्माणि गुणस्वभावाँश्च (उश्मसि) प्राप्तुं कामयामहे॥६॥
अन्वयः-हे विद्वन्! यथाहमवस्से यमपां नपातं सवितारं परमात्मानमुपस्तौमि तथा त्वमप्युपस्तुहि प्रशंसय यथा वयं यस्य व्रतान्युश्मसि प्रकाशितुं कामयामहे तथा तस्यैतानि यूयमपि प्राप्तुं कामयध्वम्॥६॥ ___
भावार्थ:-अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वान् परमेश्वरं स्तुत्वा तस्याज्ञामाचरन्ति। तथैव युष्माभिरप्यनुष्टाय तद्रचितायामस्यां सृष्टावुपकाराः संग्राह्या इति॥६॥
पदार्थ:-हे धार्मिक विद्वान् मनुष्य! जैसे मैं (अवसे) रक्षा आदि के लिये (अपाम्) जो सब पदार्थों को व्याप्त होने अन्त आदि पदार्थों के वर्त्ताने तथा (नपातम्) अविनाशी और (सवितारम्) सकल ऐश्वर्या के देनेवाले परमेश्वर की स्तुति करता हूँ, वैसे तू भी उसकी (उपस्तुहि) निरन्तर प्रशंसा कर। मनुष्यो! जैसे हम लोग जिसके (व्रतानि) निरन्तर धर्मयुक्त कर्मों को (उश्मसि) प्राप्त होने की कामना करते हैं, वैसे (तस्य) उसके गुण कर्म और स्वभाव को प्राप्त होने की कामना तुम भी करो।।६
भावार्थ:-जैसे विद्वान् मनुष्य परमेश्वर की स्तुति करके उसकी आज्ञा का आचरण करता है, वैसे तुम लोगों को भी उचित है कि उस परमेश्वर के रचे हुए संसार में अनेक प्रकार के उपकार ग्रहण करो॥६॥ __
अथ सवितृशब्देनेश्वरसूर्यगुणा उपदिश्यन्ते।
अगले मन्त्र में सविता शब्द से ईश्वर और सूर्य के गुणों का उपदेश किया है