अमूर्या उप सूर्य याभिर्वा सूर्य्यः सह।
ता नौ हिन्वन्त्वध्वरम्॥१७॥
अमूः। याः। उप। सूर्यो याभिः। वा। सूर्य्यः। सह। ताः। नः। हिन्वन्तु। अध्वरम्॥ १७॥
पदार्थ:-(अमूः) परोक्षाः (याः) आप (उप) सामीप्ये (सूर्ये) सूर्ये तत्प्रकाशमध्ये वा (याभिः) अद्भिः (वा) पक्षान्तरे (सूर्यः) सवितृलोकस्तत्प्रकाशो वा (सह) सङ्गे (ताः) आपः (नः) अस्माकम् (हिन्वन्तु) प्रीणयन्ति सेधयन्ति। अत्र लडथै लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (अध्वरम्) अहिंसनीयं सुखरूपं यज्ञम्॥१७॥
अन्वयः-या अमूरापः सूर्ये तत्प्रकाशे वा वर्त्तते, याभिः सह सूर्यो वर्त्तते, ता नोऽस्माकमध्वरमुपहिन्वन्तूपसेधयन्ति।।१७॥
भावार्थ:-यज्जलं पृथिव्यादयो मूर्त्तिमतो द्रव्यात् सूर्यकिरणैश्छन्नं संल्लघुत्वं प्राप्य सूर्याभिमुखं गच्छति, तदेवोपरिष्टाद् वृष्टिद्वाराऽऽगतं यानादिव्यवहारे यानेषु वा सुयोजितं सुखं वर्द्धयतीति॥१७॥
पदार्थ:-(याः) जो (अमूः) जल दृष्टिगोचर नहीं होते (सूर्ये) सूर्य वा इसके प्रकाश के मध्य में वर्तमान हैं (वा) अथवा (याभिः) जिन जलों के (सह) साथ (सूर्यः) सूर्यलोक वर्तमान है (ताः) वे (नः) हमारे (अध्वरम्) हिंसारहित सुखरूप यज्ञ को (उपहिन्वन्तु) प्रत्यक्ष सिद्ध करते हैं।।१७॥
भावार्थ:-जो जल पृथिवी आदि मूर्त्तिमान् पदार्थों से सूर्य की किरणों करके छिन्न-भिन्न अर्थात् कण-कण होता हुआ सूर्य के सामने ऊपर को जाता है, वही ऊपर से वृष्टि के द्वारा गिरा हुआ पान आदि व्यवहार वा विमान आदि यानों में अच्छे प्रकार संयुक्त किया हुआ सुख बढ़ाता है।१७।
पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते।
फिर भी वे जल किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है