तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानुस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः
अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मा न आयुः प्र मोषीः॥११॥
तत्। त्वा। यामि। ब्रह्मणा। वन्दमानः। तत्। आ। शास्ते। यजमानः। हविःऽभिः। अहेळमानः। वरुणः। ह। बोधि। उहँऽशंसा मा। नः। आयुः। प्रा मोषीः॥११॥
पदार्थः-(तत्) सुखम् (त्वा) त्वां वरुणं प्राप्तुं तं सूर्यं वा (यामि) प्राप्नोमि (ब्रह्मणा) वेदेन (वन्दमानः) स्तुवन्नभिगायन् (तत्) सुखम् (आ) अभितः (शास्ते) इच्छति (यजमानः) त्रिविधस्य यज्ञस्यानुष्ठाता (हविर्भिः) हवनादिभिः साधनैः (अहेळमानः) अनादरमकुर्वाणः (वरुण) जगदीश्वर वायुर्वा। (इह) अस्मिन् संसारे (बोधि) विदितो भव विदितगुणो वा भवति। अत्र लोडर्थे लडर्थे च लुङडभावश्च। (उरुशंस) बहुभिः शस्यते यस्तत्सम्बुद्धौ पक्षे सूर्यो वा (मा) निषेधार्थे (न:) अस्माकम् (आयुः) वयः (प्र) प्रकृष्टार्थे (मोषी:) नाशय विनाशयेद्वा। अत्र लोडर्थे लिङर्थे च लुङडभावोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥११॥
__ अन्वयः-हे उरुशंस वरुण! यं त्वामाश्रित्य यजमानो हविर्भिस्तदाशास्ते, तं त्वा ब्रह्मणा वन्दमानोऽहेळमानोऽहं यामि कृपया त्वं मह्यमिह बोधि विदितो भव, नोऽस्माकमायुर्मा प्रमोषीरित्येकः॥१॥११॥
तत्सुखमिच्छन् यजमानो यमुरुशंसं वरुणमाशास्ते, यं ब्रह्मणा वन्दमानोऽहेडमानस्तत्सुखमिच्छन्नहं यामि प्राप्नोमि, स उरुशंसो वरुणोऽस्माभिर्बोधि विदितो भवतु, यतोऽयं नोऽस्माकमायुर्मा प्रमोषीर्मा विनाशयेदिति द्वितीयः॥११॥ ___
भावार्थ:-मनुष्यैर्वेदोक्तरीत्या परमेश्वरं सूर्य च विज्ञाय सुखं प्राप्तव्यम्। नैव केनचित् परमेश्वरोऽनादरणीयः सूर्यविद्या च सर्वदेश्वराज्ञापालनं तत्सृष्टपदार्थानां गुणान् विदित्वोपस्कृत्य चायुषोवृद्धिर्नित्यं कर्तव्येति॥२॥११॥
पदार्थ:-हे (उरुशंस) सर्वथा प्रशंसनीय (वरुण) जगदीश्वर जिस (त्वा) आपका आश्रय लेके (यजमान:) उक्त तीन प्रकार यज्ञ करने वाला विद्वान् (हविर्भिः) होम आदि साधनों से (तत्) अत्यन्त सुख की (आशास्ते) आशा करता है, उन आप को (ब्रह्मणा) वेद से स्मरण और अभिवादन तथा (अहेळमान:) आपका अनादर अर्थात् अपमान नहीं करता हुआ मैं (यामि) आपको प्राप्त होता हूं, आप कृपा करके मुझे (इह) इस संसार में (बोधि) बोधयुक्त कीजिये और (न:) हमारी (आयुः) उमर (मा) (प्रमोषी:) मत व्यर्थ खोइये अर्थात् अति शीघ्र मेरे आत्मा को प्रकाशित कीजिये।।१॥१॥
_(तत्) सुख की इच्छा करता हुआ (यजमानः) तीन प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला जिस (उरुशंस) अत्यन्त प्रशंसनीय (वरुण) सूर्य को (आशास्ते) चाहता है (त्वा) उस सूर्य को (ब्रह्मणा) वन्दमानोऽहेळमानोऽहं यामि कृपया त्वं मह्यमिह बोधि विदितो भव, नोऽस्माकमायुर्मा प्रमोषीरित्येकः॥१॥११॥
तत्सुखमिच्छन् यजमानो यमुरुशंसं वरुणमाशास्ते, यं ब्रह्मणा वन्दमानोऽहेडमानस्तत्सुखमिच्छन्नहं यामि प्राप्नोमि, स उरुशंसो वरुणोऽस्माभिर्बोधि विदितो भवतु, यतोऽयं नोऽस्माकमायुर्मा प्रमोषीर्मा विनाशयेदिति द्वितीयः॥११॥ ___
भावार्थ:-मनुष्यैर्वेदोक्तरीत्या परमेश्वरं सूर्य च विज्ञाय सुखं प्राप्तव्यम्। नैव केनचित् परमेश्वरोऽनादरणीयः सूर्यविद्या च सर्वदेश्वराज्ञापालनं तत्सृष्टपदार्थानां गुणान् विदित्वोपस्कृत्य चायुषोवृद्धिर्नित्यं कर्तव्येति॥२॥११॥
पदार्थ:-हे (उरुशंस) सर्वथा प्रशंसनीय (वरुण) जगदीश्वर जिस (त्वा) आपका आश्रय लेके (यजमान:) उक्त तीन प्रकार यज्ञ करने वाला विद्वान् (हविर्भिः) होम आदि साधनों से (तत्) अत्यन्त सुख की (आशास्ते) आशा करता है, उन आप को (ब्रह्मणा) वेद से स्मरण और अभिवादन तथा (अहेळमान:) आपका अनादर अर्थात् अपमान नहीं करता हुआ मैं (यामि) आपको प्राप्त होता हूं, आप कृपा करके मुझे (इह) इस संसार में (बोधि) बोधयुक्त कीजिये और (न:) हमारी (आयुः) उमर (मा) (प्रमोषी:) मत व्यर्थ खोइये अर्थात् अति शीघ्र मेरे आत्मा को प्रकाशित कीजिये।।१॥१॥
_(तत्) सुख की इच्छा करता हुआ (यजमानः) तीन प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला जिस (उरुशंस) अत्यन्त प्रशंसनीय (वरुण) सूर्य को (आशास्ते) चाहता है (त्वा) उस सूर्य को (ब्रह्मणा) वेदोक्त क्रियाकुशलता से (वन्दमानः) स्मरण करता हुआ (अहेळमानः) किन्तु उसके गुणों को न भूलता और (इह) इस संसार में (तत्) उक्त सुख की इच्छा करता हुआ मैं (यामि) प्राप्त होता हूं कि जिससे यह (उरुशंस) अत्यन्त प्रशंसनीय सूर्य हमको (बोधि) विदित होकर (न:) हम लोगों की (आयुः) उमर (मा) (प्रमोषी:) न नष्ट करे अर्थात् अच्छे प्रकार बढ़ावे॥२॥११॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को वेदोक्त रीति से परमेश्वर और सूर्य को जानकर सुखों को प्राप्त होना चाहिये और किसी मनुष्य को परमेश्वर वा सूर्य विद्या का अनादर न करना चाहिये, सर्वदा ईश्वर की आज्ञा का पालन और उसके रचे हुए जो कि सूर्यादिक पदार्थ हैं, उनके गुणों को जानकर उनसे उपकार लेके अपनी उमर निरन्तर बढ़ानी चाहिये।।११।
पुन: स कीदृश इत्युपदिश्यते॥
__फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है