अभि त्वा देव सवितरीशानं वार्याणाम्।
सदावभागमीमहे॥३॥
अभि। त्वा। देव। सवितः। ईशानम्। वार्याणाम्। सदा। अवन्। भागम्। ईमहे॥३॥
पदार्थ:-(अभि) आभिमुख्ये (त्वा) त्वाम् (देव) सर्वानन्दप्रदेश्वर (सवितः) पृथिव्याधुत्पादक (ईशानम्) विविधस्य जगत ईक्षणशीलम् (वार्याणाम्) स्वीकर्तुमर्हाणां पृथिव्यादिपदार्थानां (सदा) सर्वदा (अवन्) रक्षन् (भागम्) भजनीयम् (ईमहे) याचामहे॥३॥
अन्वयः-हे सवितरवन् देव जगदीश्वर! वयं वा-णामीशानं भागं त्वा त्वां सदाऽभीमहे॥३॥
भावार्थ:-मनुष्यैर्यः सर्वप्रकाशक: सकलजगदुत्पादकः सर्वरक्षको जगदीश्वरो देवोऽस्ति, स एव सर्वदोपासनीयः। नैवास्माद्भिन्नं कंचिदर्थमुपास्येश्वरोपासनाफलं प्राप्तुमर्हति, तस्मान्नैतस्येश्वरस्योपासनाविषये केनापि मनुष्येण कदाचिदन्योऽर्थो व्यस्थापनीय इति॥३॥ __
पदार्थ:-हे (सवितः) पृथिवी आदि पदार्थों की उत्पत्ति वा (अवन्) रक्षा करने और (देव) सब आनन्द के देने वाले जगदीश्वर हम लोग (वार्याणाम्) स्वीकार करने योग्य पृथिवी आदि पदार्थों की (ईशानम्) यथायोग्य व्यवस्था करने (भागम्) सब के सेवा करने योग्य (त्वा) आपको (सदा) सब काल में (अभि) (ईमहे) प्रत्यक्ष याचते हैं अर्थात् आप ही से सब पदार्थों को प्राप्त होते हैं।॥३॥
भावार्थ:-मनुष्यों को योग्य है कि जो सब का प्रकाशक सकल जगत् को उत्पन्न वा सब की रक्षा करने वाले जगदीश्वर है, वही सब समय में उपासना करने योग्य है, क्योंकि इसको छोड़ के अन्य किसी की उपासना करके ईश्वर की उपासना का फल चाहे तो कभी नहीं हो सकता, इससे इसकी उपासना के विषय में कोई भी मनुष्य किसी दूसरे पदार्थ का स्थापन कभी न करे॥३॥
पुन: स एवार्थ उपदिश्यते।
फिर भी अगले मन्त्र में परमेश्वर ने अपना ही प्रकाश किया है