परा हि मे विर्मन्यवः पतन्ति वस्य॑इष्टये
वयो न वस॒तीरुप॥४॥
परा। हि। मे। विऽमन्यवः। पतन्ति। वस्य:ऽइष्टये। वयः। न। वसतीः। उप॥ ४॥
पदार्थ:-(परा) उपरिभावे। प्र परेत्येतस्य प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु०१.३) (हि) खलु (मे) मम (विमन्यवः) विविधो मन्युर्येषां ते (पतन्ति) पतन्तु गच्छन्तु। अत्र लोडर्थे लट्। (वस्यइष्टये) वसीयत इष्टये सङ्गतयेअत्र वसुशब्दान्मतुप् ततोऽतिशय ईयसुनि। विन्मतोलुंक्। (अष्टा०५.३.६५) इति मतोलुंक्। टेः। (अष्टा०६.४.१५५) इति टेर्लोपस्ततश्छान्दसो वर्णलोपो वा इतीकारस्य लोपश्च। (वयः) पक्षिणः (न) इव (वसतीः) वसन्ति यासु ता विहाय (उप) सामीप्ये॥४॥
अन्वयः-हे जगदीश्वर! त्वत्कृपया वयो वसतीर्विहाय दूरस्थानान्युपपतन्ति न इव। मे मम वासात् वस्यइष्टये विमन्यवः परा पतन्ति हि खलु दूरे गच्छन्तु॥४॥ __
भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। यथा ताडिताः पक्षिणो दूरं गत्वा वसन्ति, तथैव क्रोधयुक्ताः प्राणिनो मत्तो दूरे वसन्त्वहमपि तेभ्यो दूरे वसेयम्। यस्मादस्माकं स्वभावविपर्यासो धनहानिश्च कदाचिन्न स्यातामिति॥४॥
पदार्थ:-हे जगदीश्वर जैसे (वयः) पक्षी (वसतीः) अपने रहने के स्थानों को छोड़-छोड़ दूर देश को (उपपतन्ति) उड़ जाते हैं (न) वैसे (मे) मेरे निवास स्थान से (वस्यइष्टये) अत्यन्त धन होने के लिये (विमन्यवः) अनेक प्रकार के क्रोध करने वाले दुष्ट जन (परापतन्ति) (हि) दूर ही चले जावें॥४॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे उड़ाये हुए पक्षी दूर जाके बसते हैं, वैसे ही क्रोधी मुझ से दूर बसें और मैं भी उनसे दूर बसूं, जिससे हमारा उलटा स्वभाव और धर्म की हानि कभी न होवे॥४॥
पुन: स वरुणः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते॥
फिर वह वरुण कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।