यत्र द्वाविव जघाधिषवण्या कृता।
उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः॥२॥
यत्री द्वौऽईव। जघना। अधिऽसवा। कृता। उलूखलऽसुतानाम्। अव। इत्। ऊम् इति। इन्द्र। जल्गुलः॥२॥
पदार्थ:-(यत्र) यस्मिन् व्यवहारे (द्वाविव) उभे यथा (जघना) उरुणी। जघनं जङ्घन्यतेः। (निरु०९.२०) अत्र हन्तेः शरीरावयवे द्वे च। (उणा०५.३२) अनेनाच् प्रत्ययो द्वित्वं सुपां सुलुग्० इति त्रिषु विभक्तेराकारादेशश्च(अधिषवण्या) अधिगतं सुन्वन्ति याभ्यां ते अधिषवणी तयोर्भवे। अत्र भवे छन्दसि (अष्टा० ४.४.११०) इति यत् (कृता) कृते (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेन शोधितानाम् (अव) प्राप्नुहि (इत्) एव (उ) वितर्के (इन्द्र) अन्त:करणबहिष्करणशरीरादिसाधनैऽश्वर्यवन् मनुष्य (जल्गुलः) अतिशयेन शब्दय। सिद्धिः पूर्ववत्॥२॥
अन्वयः-हे इन्द्र! विद्वंस्त्वं यत्र द्वे जो इव अधिषवण्ये फलके कृते भवतस्ते सम्यक् कृत्वोलूखलसुतानां पदार्थानां सकाशात् सारमव प्राप्नुहि उ वितर्के इत् तदेव जल्गुलः पुनः पुनः शब्दय।।२॥
भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारःमनुष्यैर्यथा द्वाभ्यामुरुभ्यां गमनादिका क्रिया निष्पाद्यते, तथैव पाषाणस्याध एका स्थूला शिला स्थापनार्था द्वितीया हस्तेनोपरि पेषणार्था कार्ये ताभ्यामोषधीनां पेषणं कृत्वा यथावद्भक्षणादि संसाध्य भक्षणीयमिदमपि मुसलोलूखलवद् द्वितीयं साधनं रचनीयमिति॥२॥
पदार्थ:-हे (इन्द्र) भीतर बाहर के शरीर साधनों से ऐश्वर्य वाले विद्वान् मनुष्य! तुम (द्वाविव) (जघना) दो जंघाओं के समान (यत्र) जिस व्यवहार में (अधिषवण्या) अच्छे प्रकार वा असार अलगअलग करने के पात्र अर्थात् शिलबट्टे होते हैं, उनको (कृता) अच्छे प्रकार सिद्ध करके (उलूखलसुतानाम्) शिलबट्टे से शुद्ध किये हुए पदार्थों के सकाश से सार को (अव) प्राप्त हो (उ) और उत्तम विचार से (इत्) उसी को (जल्गुलः) बार-बार पदार्थों पर चला।।२।।
भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जैसे दोनों जांघों के सहाय से मार्ग का चलना-चलाना सिद्ध होता है, वैसे ही एक तो पत्थर की शिला नीचे रक्खें और दूसरा ऊपर से पीसने के लिये बट्टा जिसको हाथ में लेकर पदार्थ पीसे जायें, इनसे औषधि आदि पदार्थों को पीसकर यथावत् भक्ष्य आदि पदार्थों को सिद्ध करके खावें। यह भी दूसरा साधन उखली मुसल के समान बनाना चाहिये॥२॥
अथेयं विद्या कथं ग्राह्येत्युपदिश्यते॥