यत्र नार्यपच्य॒वमुपच्य॒वं च शिक्षते।
उलूखलसुताना॒मवेद्विन्द्र जल्गुलः॥३॥
यत्री नारी। अपऽच्य॒वम्। उपऽच्य॒वम्। च। शिक्षते। उलूखलसुतानाम्। अवा इत्। ऊम् इति। इन्द्र। जल्गुलः॥३॥
पदार्थ:-(यत्र) यस्मिन् कर्मणि (नारी) नरस्य पत्नी गृहमध्ये (अपच्यवम्) त्यागम् (उपच्यवम्) प्रापणम्। च्युङ् गतावित्यस्य प्रयोगौ (च) तत् क्रियाकरणशिक्षादेः समुच्चये (शिक्षते) ग्राहयति (उलूखलसुतानाम्) उलूखलेनोत्पादितानाम् (अव) जानीहि (इत्) एवं (उ) जिज्ञास्सने (इन्द्र) इन्द्रियाधिष्ठातर्जीव (जल्गुलः) शृणूपदिश च। सिद्धिः पूर्ववत्॥३॥
अन्वयः-हे इन्द्र! त्वं यत्र नारीकर्मकारीभ्य उलूखलसुतानामपच्यवमुपच्यवं च शिक्षते तद्विद्यामुपादत्ते, तत्र तदेतत्सर्वम् इदेव जल्गुलः शृण्वेता उपदिश च॥३॥
भावार्थ:-उलूखलादिविद्याया भोजनादिसाधिकाया गृहसम्बन्धिकार्यकारित्वादेषा स्त्रीभिर्नित्यं ग्राह्याऽन्याभ्यो ग्राहयितव्या च। यत्र पाकक्रिया साध्यते तत्रैतानि स्थापनीयानि नैतैर्विना कुट्टनपेषणादिक्रियाः सिध्यन्तीति।।३।।
पदार्थ:-हे (इन्द्र) इन्द्रियों के स्वामी जीव! तू (यत्र) जिस कर्म में घर के बीच (नारी) स्त्रियां काम करने वाली अपनी संगि स्त्रियों के लिये (उलूखलसुतानाम्) उक्त उलूखलों से सिद्ध की हुई विद्या को (अपच्यवम्) (उपच्यवम्) (च) अर्थात् जैसे डालना निकालनादि क्रिया करनी होती है, वैसे उस विद्या को (शिक्षते) शिक्षा से ग्रहण करती और कराती हैं, उसको (उ) अनेक तर्कों के साथ (जल्गुलः) सुनो और इस विद्या का उपदेश करो।।३॥
भावार्थ:-यह उलूखलविद्या जो कि भोजनादि के पदार्थ सिद्ध करने वाली है, गृहसम्बन्धि कार्य करने वाली होने से यह विद्या स्त्रियों को नित्य ग्रहण करनी और अन्य स्त्रियों को सिखाना भी चाहियेजहाँ पाक सिद्ध किये जाते हों वहाँ ये सब उलूखल आदि साधन स्थापन करने चाहिये, क्योंकि इनके विना कूटना-पीसना आदि क्रिया सिद्ध नहीं हो सकती॥३॥
एतत्सम्बध्यन्यदपि साधनमुपदिश्यते॥
इसके सम्बन्धी और भी साधन का अगले मन्त्र में उपदेश किया है।