अथ द्वाविंशत्यूचस्य त्रिंशत्तमस्य सूक्तस्याजीगर्त्ति शुनःशेप ऋषिः। १-१६ इन्द्रः। १७-१९
अश्विनौ। २०-२२ उषादेवताः। १-१०, १२-१५, १७-२२ गायत्री। ११ पादनिवृद्गायत्री
त्रिष्टुप् च छन्दांसि। १-२२ षड्जः। १६ धैवतश्च स्वरः॥
तत्रादिमे इन्द्रशब्देन शूरवीरगुणा उपदिश्यन्ते।
इसके पहले मन्त्र में इन्द्र शब्द से शूरवीरों के गुणों का प्रकाश किया है।
आ व इन्द्रं क्रिवि यथा वाजयन्तः शतक्रतुम्मं
हिष्ठं सिञ्च इन्दुभिः॥१॥
आवःइन्द्रम्। क्रिविम्। यथा। वाजऽयन्तः। शतऽक्रतुम्। मंहिष्ठम्। सिञ्चइन्दुऽभिः॥ १॥
पदार्थ:-(आ) सर्वतः (व:) युष्माकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यहेतुप्रापकम् (क्रिविम्) कूपम्। क्रिविरिति कूपनामसु पठितम्। (निघं०३.२३) (यथा) येन प्रकारेण (वाजयन्तः) जलं चालयन्तो वायवः (शतक्रतुम्) शतमसंख्याताः क्रतवः कर्माणि यस्मात्तम् (मंहिष्ठम्) अतिशयेन महान्तम् (सिञ्च) (इन्दुभिः) जलैः॥१॥ __
अन्वयः-हे सभाध्यक्ष! मनुष्या यथा कृषीवला: क्रिवि कूपं सम्प्राप्य तज्जलेन क्षेत्राणि सिंचन्ति यथा वाजयन्तो वायव इन्दुभिः शतक्रतुं मंहिष्ठमिन्द्रं च तथा त्वमपि प्रजा: सुखैः सिंच संयोजय॥१॥ ___
भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। यथा मनुष्याः पूर्वं कूपं खनित्वा तज्जलेन स्नानपानक्षेत्रवाटिकादि सिंचनादि व्यवहारं कृत्वा सुखिनो भवन्ति, तथैव विद्वांसो यथावत् कलायन्त्रेष्वऽग्निं योजयित्वा तत्सम्बन्धेन जलं स्थापयित्वा चालनेन बहूनि कार्याणि कृत्वा सुखिनो भवन्ति॥१॥
पदार्थ-हे सभाध्यक्ष मनुष्य! (यथा) जैसे खेती करने वाले किसान (क्रिविम्) कुएँ को खोद कर उसके जल से खेतों को (सिञ्च) सींचते हैं और जैसे (वाजयन्तः) वेगयुक्त वायु (इन्दुभिः) जलों से (शतक्रतुम्) जिससे अनेक कर्म होते हैं (मंहिष्ठम्) बड़े (इन्द्रम्) सूर्य को सींचते, वैसे तू भी प्रजाओं को सुखों से अभिषिक्त कर॥१॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य पहिले कुएँ को खोद कर उसके जल से स्नान-पान और खेत बगीचे आदि स्थानों के सींचने से सुखी होते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग यथायोग्य कलायन्त्रों में अग्नि को जोड़ के उसकी सहायता से कलों में जल को स्थापन करके उनको चलाने से बहुत कार्यों को सिद्ध करके सुखी होते हैं।।१।।
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।।
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।