ऊर्ध्वस्तिष्ठा न ऊतयेऽस्मिन्वाजे शतक्रतो
समन्येषु ब्रवावहै॥६॥
ऊर्ध्वः। तिष्ठ। नः। ऊतये। अस्मिन्। वाजे। शतक्रतो इति शतक्रतो। सम्। अन्येषु। वावहै॥६॥
पदार्थ:-(ऊर्ध्वः) सर्वोपरि विराजमानः (तिष्ठ) स्थिरो भव। अत्र व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः । (न:) अस्माकम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (अस्मिन्) वर्तमाने (वाजे) युद्धे (शतक्रतो) शतानि बहुविधानि कर्माणि वा बहुविधाप्रज्ञा यस्य तत्सम्बुद्धौ। सभासेनाध्यक्ष (सम्) सम्यगर्थे (अन्येषु) युद्धेतरेषु साधनीयेषु कार्येषु (ब्रवावहै) परस्परमुपदेशश्रवणे नित्यं कुर्य्यावहै॥६॥
अन्वयः-हे शतक्रतो! नोऽस्माकमूतये ऊर्ध्वस्तिष्ठैवं सति वाजेऽन्येषु साधनीयेषु कर्मसु त्वं प्रतिजनोऽहं च द्वौ द्वौ सम्ब्रवावहै॥६॥
भावार्थ:-सत्याचारैर्ध्यानावस्थितैर्मनुष्यरात्मस्थानान्तर्यामि जगदीश्वरस्याज्ञया सेनाधिष्ठात्रा सभाध्यक्षेण च सत्यासत्ययोः कर्तव्याकर्तव्ययोश्च सम्यनिश्चयः कार्यो नैतेन विना कदाचित् कस्यचिद्विजयसत्यबोधौ भवतः। ये सर्वव्यापिनं जगदीश्वरं न्यायाधीशं मत्वा धार्मिकं शूरवीरं च सेनापति कृत्वा शत्रुभिः सह युध्यन्ति तेषां ध्रुवो विजयो नेतरेषामिति॥६॥ __
पदार्थ:-हे (शतक्रतो) अनेक प्रकार के कर्म वा अनेक प्रकार की बुद्धियुक्त सभा वा सेना के स्वामी! जो आप के सहाय के योग्य हैं, उन सब कार्यों में हम (सम्ब्रवावहै) परस्पर कह सुन सम्मति से चलें और तू (न:) हम लोगों की (ऊतये) रक्षा करने के लिये (अर्ध्वः) सभों से ऊँचे (तिष्ठ) बैठ। इस प्रकार आप और हम सभों में प्रतिजन अर्थात् दो-दो होकर (वाजे) युद्ध तथा (अन्येषु) अन्य कर्त्तव्य जो कि उपदेश वा श्रवण है, उस को नित्य करें।।६।
भावार्थ:-सत्य प्रचार के विचारशील पुरुषों को योग्य है कि जो अपने आत्मा में अन्तर्यामी जगदीश्वर है, उसकी आज्ञा से सभापति वा सेनापति के साथ सत्य और मिथ्या वा करने और न करने योग्य कामों का निश्चय करना चाहियेइसके विना कभी किसी को विजय या सत्य बोध नहीं होसकता। जो सर्वव्यापी जगदीश्वर न्यायाधीश को मानकर वा धार्मिक शूरवीर को सेनापति करके शत्रुओं के साथ युद्ध करते हैं, उन्हीं का निश्चय से विजय होता है, औरों का नहीं॥६॥
पुनरीश्वरसेनाध्यक्षो कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते॥
फिर ईश्वर वा सेनाध्यक्ष कैसे हैं, इस का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।