अह॒न्नहि पर्वत शिश्रिया॒णं त्वष्टास्मै वज्रं स्वयं ततक्षा
वाश्राईव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव॑ जग्मुरापः॥२॥
अहन्। अहिम्। पर्वत। शिश्रियणम्। त्वष्टाअस्मै। वज्रम्। स्वर्यम्। ततक्षा वाश्राऽइव। धेनवःस्यन्दमानाः। अञ्जः। समुद्रम्अवा जग्मुः। आपः॥ २॥
पदार्थ:-(अहन्) हतवान् हन्ति हनिष्यति वा (अहिम्) मेघमिव शत्रुम् (पर्वते) मेघमण्डले इव गिरौ। पर्वत इति मेघनामसु पठितम्(निघ०१.१०) (शिश्रियाणम्) विविधाश्रयम् (त्वष्टा) स्वकिरणैः छेदनसूक्ष्मकर्त्ता स्वतेजोभिः शत्रुविदारको वा (अस्मै) मेघाय दुष्टाय वा (वज्रम्) छेदनस्वभावं किरणसमूह शस्त्रवृन्दं वा (स्वर्यम्) स्वरे गर्जने वाचि वा साधुस्तम्। स्वर इति वाड्नामसु पठितम्। (निघं०१.११)। इदं पदं सायणाचार्येण मिथ्यैव व्याख्यातम्। (ततक्ष) छिनत्ति (वाश्राइव) वत्सप्राप्तिमुत्कण्ठिताः शब्दायमाना इव (धेनवः) गावः (स्यन्दमानाः) प्रस्रवन्त्यः (अञ्जः) व्यक्तागमनशीला वा। अचू व्यक्तिकरण इत्यस्य प्रयोगः। (समुद्रम्) जलेन पूर्ण सागरमन्तरिक्षं वा (अव) नीचार्थे (जग्मुः) गच्छन्ति (आपः) जलानि शत्रुप्राणा वा॥२॥
अन्वयः-यथाऽयं त्वष्टा सूर्यलोक: पर्वते शिश्रियाणं स्वयंमहिमहन् हन्ति। अस्मै मेघाय वज्रं ततक्ष तक्षति। एतेन कर्मणा वाश्रा धेनव इव स्यन्दमाना अञ्ज आपः समुद्रमवजग्मुरवगच्छन्ति। तथैव सभाध्यक्षो राजा दुर्गमाश्रितं शत्रु हन्यादस्मै शत्रवे वज्रं तक्षेत् तेन वाश्रा धेनव इव स्यन्दमाना अञ्ज आपः समुद्रमवगमयेत्॥२॥
भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः स्वकिरणैरन्तरिक्षस्थं मेघ भूमौ निपात्य जगज्जीवयति, तथा सेनेशो दुर्गपर्वताद्याश्रितमपि शत्रु पृथिव्या सम्पात्य प्रजाः सततं सुखयति॥२॥
पदार्थ:-जैसे यह (त्वष्टा) सूर्य्यलोक (पर्वते) मेघमण्डल में (शिश्रियाणम्) रहने वाले (स्वर्यम्) गर्जनशील (अहिम्) मेघ को (अहन्) मारता है (अस्मै) इस मेघ के लिये (वज्रम्) काटने के स्वभाव वाले किरणों को (ततक्ष) छोड़ता है। इस कर्म से (वाश्रा धेनव इव) बछड़ों को प्रीतिपूर्वकचाहती हुई गौओं के समान (स्यन्दमानाः) चलते हुए (अञ्जः) प्रकट (आप:) जल (समुद्रम्) जल से पूर्ण समुद्र को (अवजग्मुः) नदियों के द्वारा जाते हैं। वैसे ही सभाध्यक्ष राजा को चाहिये कि किला में रहने वाले दुष्ट शत्रु को मारे, इस शत्रु के लिये उत्तम शस्त्र छोड़े। इस प्रकार उसके बछड़ों को चाहने वाली गौओं के समान चलते हुए प्रसिद्ध प्राणों को अन्तरिक्ष में प्राप्त करे, उन कण्टक शत्रुओं को मार के प्रजा को सुख देवे।।२॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य अपनी किरणों से अन्तरिक्ष में रहने वाले मेघ को भूमि पर गिराकर जगत् को जिलाता है, वैसे ही सेनापति किला पर्वत आदि में रहने वाले भी शत्रु को पृथिवी में गिरा के प्रजा को निरन्तर सुखी करता है॥२॥
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।