नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः
याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव।।८॥
नदम्। न। भन्नम्। अमुया। शनिम्। मनः। हाणाः। अति। यन्ति। आपः। याः। चित्। वृत्रः। महिना। परिऽअतिष्ठत्। तासाम्। अहिः। पत्सुतःऽशीः। बभूव॥८॥
पदार्थः-(नदम्) महाप्रवाहयुक्तम् (न) इव (भिन्नम्) विदीर्णतटम् (अमुया) पृथिव्या सह (शयानम्) कृतशयनम् (मनः) अन्तःकरणमिव (रुहाणाः) प्रादुर्भवन्त्यश्चलन्त्यो नद्यः (अति) अतिशयार्थे (यन्ति) गच्छन्ति (आप:) जलानि। आप इत्युदकनामसु पठितम्। (निघ०१.१२) (याः) मेघमण्डलस्थाः (चित्) एव (वृत्रः) मेघः (महिना) महिम्ना। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति मकारलोपः। (पर्यतिष्ठत्) सर्वत आवृत्य स्थितः (तासाम्) अपां समूहः (अहिः) मेघः (पत्सुतःशी:) यः पादेष्वधः शेते सः। अत्र सप्तम्यन्तात् पादशब्दात् इतराभ्योऽपि दृश्यन्ते। (अष्टा०५.३.१४) इति तसिल्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति विभक्त्यलुक् शीधातोः क्विप् च। (बभूव) भवति। अत्र लडर्थे लिट्॥८॥
अन्वयः-भो महाराज! त्वं यथायं वृत्रो मेघो महिना स्वमहिम्ना पर्यतिष्ठन्निरोधको भूत्वा सर्वतः स्थितोऽहिर्हतः सन् तासामपां मध्ये स्थितः पत्सुतःशीर्बभूव भवति, तस्य शरीरं मनो रुहाणा याश्चिदेवान्तरिक्षस्था आपो भिन्नशयानं यन्ति गच्छन्ति नदं नेवाच्या भूम्या सह वर्त्तन्ते, तथैव सर्वान् शत्रून् बद्ध्वा वशं नय।।८॥
भावार्थ:-अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यावज्जलं सूर्येण छेदितं वायुना सह मेघमण्डलं गच्छति तावत्सर्वं मेघ एव जायते, यदा जलाशयोऽतीव वर्द्धते तदा सघनपृतनः सन् स्वविस्तारेण सूर्यज्योतिर्निरुणद्धि तं यदा सूर्यः स्वकिरणैश्छिनत्ति तदायमितस्ततो जलानि महानदं तडागं समुद्रं वा प्राप्य शेरते, सोऽपि पृथिव्यां यत्र तत्र शयानः सन् मनुष्यादीनां पादाध इव भवत्येवमधार्मिकोऽप्येधित्वा सद्यो नश्यति॥८॥
पदार्थः-भो राजाधिराज! आप जैसे यह (वृत्रः) मेघ (महिना) अपनी महिमा से (पर्यतिष्ठत्) सब ओर से एकता को प्राप्त और (अहिः) सूर्य के ताप से मारा हुआ (तासाम्) उन जलों के बीच में स्थित (पत्सुतःशीः) पादों के तले सोनेवाला सा (बभूव) होता है, उस मेघ का शरीर (मनः) मननशील अन्तःकरण के सदृश (रुहाणाः) उत्पन्न होकर चलने वाली नदी जो अन्तरिक्ष में रहने वाले (चित्) ही (याः) जो अन्तरिक्ष में वा भूमि में रहने वाले (आपः) जल (भिन्नम्) विदीर्ण तट वाले (शयानम्) सोतेहुए के (न) तुल्य (नदम्) महाप्रवाहयुक्त नद को (यन्ति) जाते और वे जल (न) (अमुया) इस पृथिवी के साथ प्राप्त होते हैं, वैसे सब शत्रुओं को बाँध के वश में कीजिये॥८॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा और उपमालङ्कार हैं। जितना जल सूर्य से छिन्न-भिन्न होकर पवन के साथ मेघमण्डल को जाता है, वह सब जल मेघरूप ही हो जाता है। जब मेघ के जल का समूह अत्यन्त बढ़ता है, तब मेघ घनी-घनी घटाओं से घुमड़ि-घुमड़ि के सूर्य के प्रकाश को ढांप लेता है, उसको सूर्य अपनी किरणों से जब छिन्न-भिन्न करता है, तब इधर-उधर आए हुए जल बड़ेबड़े नद ताल और समुद्र आदि स्थानों को प्राप्त होकर सोते हैं, वह मेघ भी पृथिवी को प्राप्त होकर जहाँ तहां सोता है अर्थात् मनुष्य आदि प्राणियों के पैरों में सोता सा मालूम होता है, वैसे अधार्मिक मनुष्य भी प्रथम बढ़ के शीघ्र नष्ट हो जाता है॥८॥
पुन: स कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते।। __
फिर वह कैसा होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः
याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव।।८॥
नदम्। न। भन्नम्। अमुया। शनिम्। मनः। हाणाः। अति। यन्ति। आपः। याः। चित्। वृत्रः। महिना। परिऽअतिष्ठत्। तासाम्। अहिः। पत्सुतःऽशीः। बभूव॥८॥
पदार्थः-(नदम्) महाप्रवाहयुक्तम् (न) इव (भिन्नम्) विदीर्णतटम् (अमुया) पृथिव्या सह (शयानम्) कृतशयनम् (मनः) अन्तःकरणमिव (रुहाणाः) प्रादुर्भवन्त्यश्चलन्त्यो नद्यः (अति) अतिशयार्थे (यन्ति) गच्छन्ति (आप:) जलानि। आप इत्युदकनामसु पठितम्। (निघ०१.१२) (याः) मेघमण्डलस्थाः (चित्) एव (वृत्रः) मेघः (महिना) महिम्ना। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति मकारलोपः। (पर्यतिष्ठत्) सर्वत आवृत्य स्थितः (तासाम्) अपां समूहः (अहिः) मेघः (पत्सुतःशी:) यः पादेष्वधः शेते सः। अत्र सप्तम्यन्तात् पादशब्दात् इतराभ्योऽपि दृश्यन्ते। (अष्टा०५.३.१४) इति तसिल्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति विभक्त्यलुक् शीधातोः क्विप् च। (बभूव) भवति। अत्र लडर्थे लिट्॥८॥
अन्वयः-भो महाराज! त्वं यथायं वृत्रो मेघो महिना स्वमहिम्ना पर्यतिष्ठन्निरोधको भूत्वा सर्वतः स्थितोऽहिर्हतः सन् तासामपां मध्ये स्थितः पत्सुतःशीर्बभूव भवति, तस्य शरीरं मनो रुहाणा याश्चिदेवान्तरिक्षस्था आपो भिन्नशयानं यन्ति गच्छन्ति नदं नेवाच्या भूम्या सह वर्त्तन्ते, तथैव सर्वान् शत्रून् बद्ध्वा वशं नय।।८॥
भावार्थ:-अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यावज्जलं सूर्येण छेदितं वायुना सह मेघमण्डलं गच्छति तावत्सर्वं मेघ एव जायते, यदा जलाशयोऽतीव वर्द्धते तदा सघनपृतनः सन् स्वविस्तारेण सूर्यज्योतिर्निरुणद्धि तं यदा सूर्यः स्वकिरणैश्छिनत्ति तदायमितस्ततो जलानि महानदं तडागं समुद्रं वा प्राप्य शेरते, सोऽपि पृथिव्यां यत्र तत्र शयानः सन् मनुष्यादीनां पादाध इव भवत्येवमधार्मिकोऽप्येधित्वा सद्यो नश्यति॥८॥
पदार्थः-भो राजाधिराज! आप जैसे यह (वृत्रः) मेघ (महिना) अपनी महिमा से (पर्यतिष्ठत्) सब ओर से एकता को प्राप्त और (अहिः) सूर्य के ताप से मारा हुआ (तासाम्) उन जलों के बीच में स्थित (पत्सुतःशीः) पादों के तले सोनेवाला सा (बभूव) होता है, उस मेघ का शरीर (मनः) मननशील अन्तःकरण के सदृश (रुहाणाः) उत्पन्न होकर चलने वाली नदी जो अन्तरिक्ष में रहने वाले (चित्) ही (याः) जो अन्तरिक्ष में वा भूमि में रहने वाले (आपः) जल (भिन्नम्) विदीर्ण तट वाले (शयानम्) सोतेहुए के (न) तुल्य (नदम्) महाप्रवाहयुक्त नद को (यन्ति) जाते और वे जल (न) (अमुया) इस पृथिवी के साथ प्राप्त होते हैं, वैसे सब शत्रुओं को बाँध के वश में कीजिये॥८॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा और उपमालङ्कार हैं। जितना जल सूर्य से छिन्न-भिन्न होकर पवन के साथ मेघमण्डल को जाता है, वह सब जल मेघरूप ही हो जाता है। जब मेघ के जल का समूह अत्यन्त बढ़ता है, तब मेघ घनी-घनी घटाओं से घुमड़ि-घुमड़ि के सूर्य के प्रकाश को ढांप लेता है, उसको सूर्य अपनी किरणों से जब छिन्न-भिन्न करता है, तब इधर-उधर आए हुए जल बड़ेबड़े नद ताल और समुद्र आदि स्थानों को प्राप्त होकर सोते हैं, वह मेघ भी पृथिवी को प्राप्त होकर जहाँ तहां सोता है अर्थात् मनुष्य आदि प्राणियों के पैरों में सोता सा मालूम होता है, वैसे अधार्मिक मनुष्य भी प्रथम बढ़ के शीघ्र नष्ट हो जाता है॥८॥
पुन: स कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते।। __
फिर वह कैसा होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः
याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव।।८॥
नदम्। न। भन्नम्। अमुया। शनिम्। मनः। हाणाः। अति। यन्ति। आपः। याः। चित्। वृत्रः। महिना। परिऽअतिष्ठत्। तासाम्। अहिः। पत्सुतःऽशीः। बभूव॥८॥
पदार्थः-(नदम्) महाप्रवाहयुक्तम् (न) इव (भिन्नम्) विदीर्णतटम् (अमुया) पृथिव्या सह (शयानम्) कृतशयनम् (मनः) अन्तःकरणमिव (रुहाणाः) प्रादुर्भवन्त्यश्चलन्त्यो नद्यः (अति) अतिशयार्थे (यन्ति) गच्छन्ति (आप:) जलानि। आप इत्युदकनामसु पठितम्। (निघ०१.१२) (याः) मेघमण्डलस्थाः (चित्) एव (वृत्रः) मेघः (महिना) महिम्ना। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वा इति मकारलोपः। (पर्यतिष्ठत्) सर्वत आवृत्य स्थितः (तासाम्) अपां समूहः (अहिः) मेघः (पत्सुतःशी:) यः पादेष्वधः शेते सः। अत्र सप्तम्यन्तात् पादशब्दात् इतराभ्योऽपि दृश्यन्ते। (अष्टा०५.३.१४) इति तसिल्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति विभक्त्यलुक् शीधातोः क्विप् च। (बभूव) भवति। अत्र लडर्थे लिट्॥८॥
अन्वयः-भो महाराज! त्वं यथायं वृत्रो मेघो महिना स्वमहिम्ना पर्यतिष्ठन्निरोधको भूत्वा सर्वतः स्थितोऽहिर्हतः सन् तासामपां मध्ये स्थितः पत्सुतःशीर्बभूव भवति, तस्य शरीरं मनो रुहाणा याश्चिदेवान्तरिक्षस्था आपो भिन्नशयानं यन्ति गच्छन्ति नदं नेवाच्या भूम्या सह वर्त्तन्ते, तथैव सर्वान् शत्रून् बद्ध्वा वशं नय।।८॥
भावार्थ:-अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यावज्जलं सूर्येण छेदितं वायुना सह मेघमण्डलं गच्छति तावत्सर्वं मेघ एव जायते, यदा जलाशयोऽतीव वर्द्धते तदा सघनपृतनः सन् स्वविस्तारेण सूर्यज्योतिर्निरुणद्धि तं यदा सूर्यः स्वकिरणैश्छिनत्ति तदायमितस्ततो जलानि महानदं तडागं समुद्रं वा प्राप्य शेरते, सोऽपि पृथिव्यां यत्र तत्र शयानः सन् मनुष्यादीनां पादाध इव भवत्येवमधार्मिकोऽप्येधित्वा सद्यो नश्यति॥८॥
पदार्थः-भो राजाधिराज! आप जैसे यह (वृत्रः) मेघ (महिना) अपनी महिमा से (पर्यतिष्ठत्) सब ओर से एकता को प्राप्त और (अहिः) सूर्य के ताप से मारा हुआ (तासाम्) उन जलों के बीच में स्थित (पत्सुतःशीः) पादों के तले सोनेवाला सा (बभूव) होता है, उस मेघ का शरीर (मनः) मननशील अन्तःकरण के सदृश (रुहाणाः) उत्पन्न होकर चलने वाली नदी जो अन्तरिक्ष में रहने वाले (चित्) ही (याः) जो अन्तरिक्ष में वा भूमि में रहने वाले (आपः) जल (भिन्नम्) विदीर्ण तट वाले (शयानम्) सोतेहुए के (न) तुल्य (नदम्) महाप्रवाहयुक्त नद को (यन्ति) जाते और वे जल (न) (अमुया) इस पृथिवी के साथ प्राप्त होते हैं, वैसे सब शत्रुओं को बाँध के वश में कीजिये॥८॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा और उपमालङ्कार हैं। जितना जल सूर्य से छिन्न-भिन्न होकर पवन के साथ मेघमण्डल को जाता है, वह सब जल मेघरूप ही हो जाता है। जब मेघ के जल का समूह अत्यन्त बढ़ता है, तब मेघ घनी-घनी घटाओं से घुमड़ि-घुमड़ि के सूर्य के प्रकाश को ढांप लेता है, उसको सूर्य अपनी किरणों से जब छिन्न-भिन्न करता है, तब इधर-उधर आए हुए जल बड़ेबड़े नद ताल और समुद्र आदि स्थानों को प्राप्त होकर सोते हैं, वह मेघ भी पृथिवी को प्राप्त होकर जहाँ तहां सोता है अर्थात् मनुष्य आदि प्राणियों के पैरों में सोता सा मालूम होता है, वैसे अधार्मिक मनुष्य भी प्रथम बढ़ के शीघ्र नष्ट हो जाता है॥८॥
पुन: स कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते।। __
फिर वह कैसा होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।