नीचावया अभवद् वृत्रपुत्रेन्द्रौ अस्या॒ अव वर्धर्जभार।
उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दाः शये सहव॑त्सा न धेनुः॥९॥
नीचाऽवयाः। अभवत्। वृत्रऽपुत्रा। इन्द्रः। अस्याः। अवा वधः। जभार। उत्तरा। सूः। अधरः। पुत्रःआसीत्। दानुः। शये। सहव॑त्सा। न। धेनुः॥९॥
पदार्थ:-(नीचावयाः) नीचानि वयांसि यस्य मेघस्य सः (अभवत्) भवति। अत्र वर्तमाने लङ्(वृत्रपुत्रा) वृत्रः पुत्र इव यस्याः सा (इन्द्रः) सूर्य: (अस्याः) वृत्रमातुः (अव) क्रियायोगे (वधः) वधम्अत्र हन्तेर्बाहुलकादौणादिकेऽसुनिवधादेशः। (जभार) हरति। अत्र वर्तमाने लिट्। हृग्रहोर्हस्य भश्छन्दसि वक्तव्यम् इति भादेशः। (उत्तरा) उपरिस्थाऽन्तरिक्षाख्या (सूः) सूयत उत्पादयति या सा माता। अत्र षूङ् धातोः क्विप्। (अधरः) अधस्थः (पुत्रः) (आसीत्) अस्ति। अत्र वर्तमाने लङ्। (दानुः) ददाति या साअत्र दाभाभ्यां नुः। (उणा०३.३१) इति नुः प्रत्ययः। (शये) शेते। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेषु। (अष्टा०७.१.४१) इति लोपः। (सहवत्सा) या वत्सेन सह वर्तमाना (न) इव (धेनुः) यथा दुग्धदात्री गौः॥९॥
अन्वयः-हे सभाध्यक्ष! त्वं यथा वृत्रपुत्रा सूर्भूमिरुत्तरान्तरिक्षं वाऽभवदस्याः पुत्रस्य वधो वधमिन्द्रोऽवजभारानेनास्याः पुत्रो नीचावया अधर आसीत्। दानुः सहवत्सा धेनुः स्वपुत्रेण सह माता नेव च शये शेते तथा स्वशत्रून् पृथिव्या सह शयानान् कुरु॥९॥
भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। वृत्रस्य द्वे मातरौ वर्तेते एका पृथिवी द्वितीयाऽन्तरिक्षं चैतयोर्द्वयोः सकाशादेव वृत्रस्योत्पत्तेः। यथा काचिद्गौः स्ववत्सेन सह वर्त्तते तथैव यदा जलसमूहो मेघ उपरि गच्छति तदाऽन्तरिक्षाख्या माता स्वपुत्रेण सह शयाना इव दृश्यते। यदा च स वृष्टिद्वारा भूमिमागच्छति तदाभूमिस्तेन स्वपुत्रेण सह शयानेव दृश्यते। अस्य मेघस्य पितृस्थानी सूर्योऽस्ति तस्योत्पादकत्वात्। अस्य हि भूम्यन्तरिक्षे द्वे स्त्रियाविव वर्तेते, यदा स जलमाकृष्य वायुद्वारान्तरिक्षे प्रक्षिपति, तदा स पुत्रो मेघो वृद्धिं प्राप्य प्रमत्त इवोन्नतो भवति, सूर्यस्तमाहत्य भूमौ निपातयत्येवमयं वृत्रः कदाचिदुपरिस्थ: कदाचिदधःस्थो भवति, तथैव राज्यपुरुषैः प्रजाकण्टकान् शत्रूनितस्ततः प्रक्षिप्य प्रजाः पालनीयाः॥९॥
पदार्थ:-हे सभापते! (वृत्रपुत्रा) जिसका मेघ लड़के के समान है, वह मेघ की माता (नीचावयाः) निकृष्ट उमर को प्राप्त हुई(सूः) पृथिवी और (उत्तरा) ऊपरली अन्तरिक्ष नामवाली (अभवत्) है (अस्याः ) इसके पुत्र मेघ के (वधः) वध अर्थात् ताड़न को (इन्द्रः) सूर्य (अव जभार) करता है, इससे इसका (नीचावयाः) निकृष्ट उमर को प्राप्त हुआ (पुत्रः) पुत्र मेघ (अधरः) नीचे (आसीत्) गिर पड़ता है और जो (दानुः) सब पदार्थों की देने वाली भूमि जैसे (सहवत्सा) बछड़े के साथ (धेनुः) गाय हो (न) वैसे अपने पुत्र के साथ (शये) सोती सी दीखती है, वैसे आप अपने शत्रुओं को भूमि के साथ सोते के सदृश किया कीजिये।।९।
भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मेघ की दो माता हैं- एक पृथिवी दूसरी अन्तरिक्ष अर्थात् इन्हीं दोनों से मेघ उत्पन्न होता है। जैसे कोई गाय अपने बछड़े के साथ रहती है, वैसे ही जब जल का समूह मेघ अन्तरिक्ष में जाकर ठहरता है, तब उसकी माता अन्तरिक्ष अपने पुत्र मेघ के साथ और जब वह वर्षा से भूमि को आता है, तब भूमि उस अपने पत्र मेघ के साथ सोती सी दीखती है। इस मेघ का उत्पन्न करने वाला सूर्य है, इसलिये वह पिता के स्थान में समझा जाता है। उस सूर्य की भूमि वा अन्तरिक्ष दो स्त्री के समान हैं, वह पदार्थों से जल को वायु के द्वारा खींचकर जब अन्तरिक्ष में चढ़ाता है, जब वह पुत्र मेघ प्रमत्त के सदृश बढ़कर उठता और सूर्य के प्रकाश को ढक लता है, तब सूर्य उसको मार कर भूमि में गिरा देता अर्थात् भूमि में वीर्य छोड़ने के समान जल पहुंचाता है। इसी प्रकार यह मेघ कभी ऊपर कभी नीचे होता है, वैसे ही राजपुरुषों को उचित है कि कण्टकरूप शत्रुओं को इधर-उधर निर्बीज करके प्रजा का पालन करें।।९॥
पुनस्तस्य शरीरं कीदृशं क्व तिष्ठतीत्युपदिश्यते।।
फिर उस मेघ का शरीर कैसा और कहाँ स्थित होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है