त्वमे॒तान् रुंदतो जतश्चायोधो रजस इन्द्र पारे।
अर्वादहो दिव आ दस्युमुच्चा प्र सुन्वतः स्तुव॒तः शंसमावः॥७॥
त्वम्। एतान। रुढतः। जक्षतः। च। अयोधयः। रजसः। इन्द्र। पारे। अव। अदहः। दिवः। आ| दस्युम्। उच्चा। प्र। सुन्वतः। स्तुव॒तःशंसम्। आवः॥ १७॥
पदार्थ:-(त्वम्) युद्धविद्याविचक्षणः (एतान्) परपीडाप्रदान् दुष्टान् शत्रून् (रुदतः) रोदनं कुर्वतः (जक्षतः) भक्षणसहने कुर्वतः (च) समुच्चये (अयोधयः) सम्यक् योधय। अत्र लोडर्थे लङ्। (रजसः) पृथिवीलोकस्य। लोका रजांस्युच्यन्ते। (निरु०४.१९) (इन्द्र) राज्यश्वर्ययुक्त (पारे) परभागे (अव) अर्वागर्थे (अदहः) दह (दिवः) सुशिक्षयेश्वरधर्मशिल्पयुद्धविद्यापरोपकारादिप्रकाशात् (आ) समन्तात् (दस्युम्) बलादन्यायेन परपदार्थहर्तारम् (उच्चा) उच्चानि सुखानि कर्माणि वा (प्र) प्रकृष्टार्थे (सुन्वतः) निष्पादयतः (स्तुवतः) गुणस्तुतिं कुर्वतः (शंसम्) शंसति येन शास्त्रबोधेन तम् (आव:) रक्ष प्राप्नुहि वा॥७॥ __
अन्वयः-हे इन्द्र सेनैश्वर्ययुक्त सेनाध्यक्ष! त्वमेतान् दुष्टकर्मकारिणो रुदतो रोदनं कुर्वतो शत्रून् वा दस्युं च स्वकीयभृत्यान् जक्षतो बहुविधभोजनादिप्रापितान् कारितहर्षांश्चायोधयः। एतान् धर्मशत्रून् रजसः पारे कृत्वाऽवादहः। एवं दिव उच्चोत्कृष्टानि कर्माणि प्रसुन्वत आस्तुवतस्तेषां शंसं च प्रावः॥७॥
भावार्थ:-मनुष्यैर्युद्धार्थं विविधं कर्म कर्त्तव्यम्। प्रथमं स्वसेनास्थानां पुष्टिहर्षकरणं दुष्टानां बलोत्साहभञ्जनसम्पादनं नित्यं कार्यम्। यथा सूर्यः स्वकिरणेः सर्वान् प्रकाश्य वृत्रान्धकारनिवारणाय प्रवर्त्तते, तथा सर्वदोत्तमकर्मगुणप्रकाशनाय दुष्टकर्मदोषनिवारणाय च नित्यं प्रयत्न: कर्त्तव्य इति॥७॥ ___
पदार्थ:-हे (इन्द्र) सेना के ऐश्वर्य से युक्त सेनाध्यक्ष! (त्वम्) आप (एतान्) इन दूसरों को पीड़ा देने दुष्टकर्म करने वाले (रुदतः) रोते हुए जीवों (च) और (दस्युम्) डाकुओं को दण्ड दीजिये तथा अपने भृत्यों को (जक्षतः) अनेक प्रकार के भोजन आदि देते हुए आनन्द करने वाले मनुष्यों को उनके साथ (अयोधयः) अच्छे प्रकार युद्ध कराइये और इन धर्म के शत्रुओं को (रजसः) पृथिवी लोक के (पारे) परभाग में करके (अवादहः) भस्म कीजिये। इसी प्रकार (दिवः) उत्तम शिक्षा से ईश्वर, धर्म, शिल्प, युद्धविद्या और परोपकार आदि के प्रकाशन से (उच्चा) उत्तम-उत्तम कर्म वा सुखों को (प्रसुन्वतः) सिद्ध करने तथा (आस्तुवतः) गुणस्तुति करने वालों की (प्रावः) रक्षा कीजिये और उनकी (शंसम्) प्रशंसा को प्राप्त हूजिये॥७॥
भावार्थ:-मनुष्यों को युद्ध के लिये अनेक प्रकार के कर्म करने अर्थात् पहिले अपनी सेना के मनुष्यों की पुष्टि, आनन्द तथा दुष्टों का दुर्बलपन वा उत्साह भङ्ग नित्य करना चाहिये। जैसे सूर्य अपनी किरणों से सबको प्रकाशित करके मेघ के अन्धकार निवारण के लिये प्रवृत्त होता है, वैसे सब काल में उत्तम कर्म वा गुणों के प्रकाश और दुष्ट कर्म के दोषों की निवृत्ति के लिये नित्य यत्न करना चाहिये।।७।
पुनरिन्द्रकृत्यमुपदिश्यते॥
फिर अगले मन्त्र में इन्द्र के कृत्य का उपदेश किया है।