त्रिः सौभगत्वं त्रिसृत श्रवांसि नस्क्र्ष्ठिं वां सूरै दुहिता रुहृद्रयम्॥५॥
त्रिः। नः। रयिम्। वहतम्। अश्विनायुवम्। त्रिःदेवऽताता। त्रिः। उत। अवतम्। धियः। त्रिः। सौभगऽत्वम्। त्रिः। उत। श्रवांसि। नःत्रिऽस्थम्। वाम्। सूरै। दुहिता। आ। सहुत्। रथम्॥५॥
पदार्थ:-(त्रिः) त्रिवारं विद्याराज्यश्रीप्राप्तिरक्षणक्रियामयम् (नः) अस्मान् (रयिम्) परमोत्तम धनम् (वहतम्) प्रापयतम् (अश्विना) द्यावापृथिव्यादिसंज्ञकाविव। अत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (युवम्) युवाम् (त्रिः) त्रिवारं प्रेरकसाधकक्रियाजन्यम्(देवताता) शिल्पक्रियायज्ञसम्पत्तिहेतू यद्वा देवान् विदुषो दिव्यगुणान् वा तनुतस्तौ। अत्र दुतनिभ्यां दीर्घश्च। (उणा०३.८८) इति क्तः प्रत्ययःदेवतातेति यज्ञनामसु पठितम्। (निघं०३.१७) (त्रिः) त्रिवारं शरीरप्राणमनोभी रक्षणम् (उत्) अपि (अवतम्) प्रविशतम् (धियः) धारणावतीर्बुद्धी: (त्रिः) त्रिवारं भृत्यसेनास्वात्मभार्यादिशिक्षाकरणम् (सौभगत्वम्) शोभना भगा ऐश्वर्याणि यस्मात् पुरुषार्थात् तस्येदं23 सौभगं तस्य भाव: 24 सौभगत्वम् (त्रिः) त्रिवार श्रवणमनननिदिध्यासनकरणम् (उत) अपि (श्रवांसि) श्रूयन्ते यानि तानि वेदादिशास्त्रश्रवणानि धनानि वा। श्रव इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (न:) अस्माकम् (त्रिस्थम्) त्रिषु शरीरात्ममनस्सुखेषु तिष्ठतीति त्रिस्थम् (वाम्) तयोः (सूरे) सूर्यस्य। अत्र सुपां सुलुग्० इति शे आदेशः। (दुहिता) कन्येव। दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा। (निरु०३.४) (आ) समन्तात् (रुहत्) रोहेत्। अत्र कृमृदृरुहिभ्यश्छन्दसि। (अष्टा०३.१.५९) इति च्लेरङ्। बहुलं छन्दस्यमाड्योगेऽपि (अष्टा०६.४.७५) इत्यडभावो लडथै लुङ्। च (स्थम्) रमन्ते येन तं विमानादियानसमूहम्॥५॥
अन्वयः-हे देवतातावश्विनौ! युवं युवां नोऽस्मभ्यं रयिं त्रिर्वहतं नोऽस्माकं धियो बुद्धीरुतापि बलं त्रिरवतं नोऽस्मभ्यं त्रिस्थं सौभगत्वं त्रिर्वहतं प्राप्नुतमुतापि श्रवांसि त्रिर्वहतं प्राप्नुतं वां ययोरश्विनोः सूरे दुहिता पुत्रो वसुविद्यया नोऽस्माकं रथं त्रिरारुहत् त्रिवारमारोहेत् तो वयं शिल्पकार्येषु सम्प्रयुज्महे॥५॥
भावार्थ:-मनुष्यैरश्विनोः सकाशाच्छिल्पकार्याणि निर्वर्त्य बुद्धिं वर्धयित्वा सौभाग्यमुत्तमान्नादीनि च प्रापणीयानि तत्सिद्धयानेषु स्थित्वा देशदेशान्तरान् गत्वा व्यवहारेण धनं प्राप्य सदानन्दयितव्यमिति।।५॥
पदार्थ:-हे (देवताता) शिल्प क्रिया और यज्ञ सम्पत्ति के मुख्य कारण वा विद्वान् तथा शुभगुणों के बढ़ाने और (अश्विना) आकाश-पृथिवी के तुल्य प्राणियों को सुख देने वाले विद्वान् लोगो! (युवम्) आप (न:) हम लोगों के लिये (रयिम्) उत्तम धन (त्रिः) तीन वार अर्थात् विद्या, राज्य, श्री की प्राप्ति और रक्षण क्रियारूप ऐश्वर्य को (वहतम्) प्राप्त करो (नः) हम लोगों की (धियः) बुद्धियों (उत) और बल को (त्रिः) तीन बार (अवतम्) प्रवेश कराइये (न:) हम लोगों के लिये (त्रिष्ठम्) तीन अर्थात् शरीर, आत्मा और मन के सुख में रहने और (सौभगत्वम्) उत्तम ऐश्वर्य के उत्पन्न करने वाले पुरुषार्थ को (त्रिः) तीन अर्थात् भृत्य, सन्तान और स्वात्म, भार्यादि को प्राप्त कीजिये (उत) और (श्रवांसि) वेदादि शास्त्र वा धनों को (त्रिः) शरीर, प्राण और मन की रक्षा सहित प्राप्त करते और (वाम्) जिन अश्वियों के सकाश से (सूरेः) सूर्य की (दुहिता) पुत्री के समान कान्ति (न:) हम लोगों के (रथम्) विमानादि यानसमूह को (त्रिः) तीन अर्थात् प्रेरक, साधक और चालन क्रिया से (आरुहत्) ले जाती है, उन दोनों को हम लोग शिल्प कार्यों में अच्छे युक्त करें।।५।
भावार्थ:-मनुष्यों को उचित है कि अग्नि भूमि के अवलम्ब से शिल्प कार्यों को सिद्ध और बुद्धि बढ़ाकर सौभाग्य और उत्तम अन्नादि पदार्थों को प्राप्त हो तथा इस सब सामग्री से सिद्ध हुए यानों में बैठ के देश-देशान्तरों को जा आ और व्यवहार द्वारा धन को बढ़ा कर सब काल में आनन्द में रहें॥५॥
पुनस्ताभ्यां कि कार्यमित्युपदिश्यते॥
फिर उनसे क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।।