त्रिों अश्विना दिव्यानि भेषजा त्रिः पार्थिवान त्रिरु दत्तम॒द्भ्यः
ओमानं शंयोर्ममकाय सूनवै त्रिधातु शर्म वहतं शुभस्पती॥६॥४॥
त्रिः। नः। अश्विना। दिव्यानि। भेषजा। त्रिः। पार्थिवानि त्रिः। ऊँ इति। दत्तम्। अत्ऽभ्यःओमानम्शूऽयोः। ममकाय। सूनवे। त्रिऽधातु। शमी वहतम्। शुभः। पती इति॥ ६॥
पदार्थ:-(त्रिः) त्रिवारम् (न:) अस्मभ्यम् (अश्विना) अश्विनौ विद्याज्योतिर्विस्तारमयौ (दिव्यानि) विद्यादिशुभगुणप्रकाशकानि (भेषजा) सोमादीन्यौषधानि रसमयानि (त्रिः) त्रिवारम् (पार्थिवानि) पृथिव्या विकारयुक्तानि (त्रिः) त्रिवारम् (ॐ) वितर्के (दत्तम्) (अद्भयः) सातत्यागन्तृभ्यो वायुविधुदादिभ्यः (ओमानम्) रक्षन्तम्, विद्याप्रवेशकं क्रियागमकं व्यवहारम्। अत्रावधातोःअन्येभ्योऽपि दृश्यन्त इति मनिन्। (शंयोः) शं सुखं कल्याणं विद्यते यस्मिँस्तस्य (ममकाय) ममायं ममकस्तस्मै। अत्र संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः(अष्टा०६.४.१४६) इति25 वृद्धयभावः (सूनवे) औरसाय विद्या पुत्राय वा (त्रिधातु) त्रयोऽयस्ताम्रपित्तलानि धातवो यस्मिन् भूसमुद्रान्तरिक्षगमनार्थे याने तत् (शर्म) गृहस्वरूपं सुखकारकं वा। शर्मेति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (वहतम्) प्रापयतम् (शुभः) यत् कल्याणकारकं मनुष्याणां कर्म तस्य। अत्र सम्पादादित्वात् क्विप्। (पती) पालयितारौ। षष्ठ्याः पतिपुत्र० (अष्टा०८.३.५३) इति संहितायां विसर्जनीयस्य सकारादेशः॥3
अन्वयः-हे शुभस्पती अश्विनौ! युवां नोऽस्मभ्यमद्भयो दिव्यानि भेषजौषधानि त्रिर्दत्तं ऊँ इति वितर्के पार्थिवानि भेषजौषधानि त्रिर्दत्तं ममकाय सूनवे शंयोः सुखस्य दानमोमानं च त्रिर्दत्तं त्रिधातु शर्म ममकाय सूनवे त्रिर्वहतं प्रापयतम्॥६॥ भावार्थ:-मनुष्यैर्जलपृथिव्योर्मध्ये यानि रोगनाशकान्यौषधानि सन्ति तानि त्रिविधतापनिवारणाय भोक्तव्यान्यनेकधातुकाष्ठमयं गृहाकारं यानं रचयित्वा तत्रोत्तमानि यवादीन्यौषधानि संस्थाप्याग्निगृहेऽग्निं पार्थिवैरिन्धनैः प्रज्वाल्यापः स्थापयित्वा वाष्पबलेन यानानि चालयित्वा व्यवहारार्थं देशदेशान्तरं गत्वा तत आगत्य सद्यः स्वदेशः प्राप्तव्य एवं कृते महान्ति सुखानि प्राप्तानि भवन्तीति॥६॥
__इति चतुर्थी वर्गः॥४॥
पदार्थ:-हे (शुभस्पती) कल्याणकारक मनुष्यों के कर्मों की पालना करने और (अश्विना) विद्या की ज्योति को बढ़ाने वाले शिल्पि लोगो! आप दोनों (नः) हम लोगों के लिये (अद्भयः) जलों से (दिव्यानि) विद्यादि उत्तम गुण प्रकाश करने वाले (भेषजा) रसमय सोमादि औषधियों को (त्रिः) तीन ताप निवारणार्थ (दत्तम्) दीजिये (उ) और (पार्थिवानि) पृथिवी के विकारयुक्त औषधी (त्रिः) तीन प्रकार से दीजिये और (ममकाय) मेरे (सूनवे) औरस अथवा विद्यापुत्र के लिये (शंयोः) सुख तथा (ओमानम्) विद्या में प्रवेश और क्रिया के बोध कराने वाले रक्षणीय व्यवहार को (त्रिः) तीन वार कीजिये और (त्रिधातु) लोहा ताँबा पीतल इन तीन धातुओं के सहित भूजल और अन्तरिक्ष में जाने वाले (शर्म) गृहस्वरूप यान को मेरे पुत्र के लिये (त्रिः) तीन वार (वहतम्) पहुंचाइये॥६॥
भावार्थ:-मनुष्यों को चाहिये कि जो जल और पृथिवी में उत्पन्न हुई रोग नष्ट करने वाली औषधी हैं, उनका एक दिन में तीन वार भोजन किया करें और अनेक धातुओं से युक्त काष्ठमय घर के समान यान को बना उसमें उत्तम-उत्तम जव आदि औषधी स्थापन, अग्नि के घर में अग्नि को काष्टों से प्रज्ज्वलित जल के घर में जलों को स्थापन, भाफ के बल से यानों को चला व्यवहार के लिये देशदेशान्तरों को जा और वहाँ से आकर जल्दी अपने देश को प्राप्त हों, इस प्रकार करने से बड़े बड़े सुख प्राप्त होते हैं॥६॥
यह चौथा वर्ग समाप्त हुआ।॥४॥
पुनस्तौ कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते।
फिर वे कैसे है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।