ति॒स्रो द्यावः सवितुर्दा उपस्था एका य॒मस्य॒ भुव॑ने विराषाट्।
आणि न रथ्य॑म॒मृताधि तस्थुरिह ब्रवीतु य उ तच्चिकैतत्॥६॥
ति॒िस्रः। द्यावः। सवितुः। द्वौ। उपऽस्था। एका। यमस्य। भुवने। विराषाट्। आणिम्। न। रथ्य॑म्। अमृता। अधि। तस्थुः। इह। ब्रवीतु। यः। ऊँ इति। तत्। चिकैतत्॥६॥
पदार्थ:-(तिस्रः) त्रित्वसंख्याकाः (द्यावः) सूर्याग्निविधुदूपाः (सवितुः) सूर्यलोकस्य (द्वौ) स्वप्रकाशभूगोलौ (उपस्था) उपतिष्ठन्ति यस्मिँस्तत्र। अत्र आडयाजयाराणां चोपसङ्ख्यानम्। (अष्टा० वा०७.१.३९) इति वार्त्तिकेन : स्थाने आङादेशः। आडोऽनुनासिकश्छन्दसि। (अष्टा०६.१.१२६) इति प्रकृतिभावादसंधिः। (एका) विद्युदाख्यदीप्तिः (यमस्य) वायोः (भुवने) अन्तरिक्षस्थाने (विराषाट्) वीरान् ज्ञानवतः प्राप्तिशीलान् जीवान् सहते सः। अत्र वर्णव्यत्ययेन दीर्घकारस्य स्थाने ह्रस्वकारोऽकारस्थान आकारश्च स्फायितञ्चि० (उणा०२.१३) इत्यजधातोरक् प्रत्ययः। छन्दसि सहः। (अष्टा०३.२.६३) इति ण्विः। सहेः साढः सः। (अष्टा०८.३.५६) इति षत्वम् (आणिम्) संग्रामम्। आणाविति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (न) इव (रथ्यम्) रथान् वहति तम् (अमृता) अमृतानि (अधि) उपरिभावे (तस्थुः) तिष्ठन्ति। अत्र लडथै लिट। (इह) अस्मिन् संसारेऽस्यां विद्यायां वा (ब्रवीतु) उपदिशतु (यः) मनुष्यः (ॐ) वितर्के (तत्) ज्ञानम् (चिकेतत्) विजानीयात्अयं कितज्ञाने धातोर्लेट प्रथमैकवचनप्रयोगः । बहुलं छन्दसि इति शप: श्लुः ॥६॥
अन्वयः-हे विव॑स्त्वं रथ्यमाणिं भृत्यानेवाऽस्य सवितुः सूर्यलोकस्य प्रकाशे यास्तिस्रो द्यावोऽधितस्थुस्तत्र द्वौ सवितृमण्डलस्योपस्था वर्तेते। एका विराषाट विद्युदाख्या दीप्तिर्यमस्य नियन्तुर्वायोर्भुवनेऽन्तरिक्षे हि तिष्ठति। यान्यमृता कारणरूपेण नाशरहितानि चन्द्रतारकादीनि भुवनानि सन्ति तान्यन्तरिक्षेऽधितस्थुरधितिष्ठन्ति य उ एतानि चिकेतत् जानीयात् स तज्ज्ञानं ब्रवीतु तथा भूत्वेमां विद्यामुपादिश॥६॥
भावार्थ:-अत्रोपमालङ्कारः। ईश्वरेण या अग्न्याख्यात् कारणात् तिस्रो दीप्तयः सूर्याग्निविद्युदाख्या रचिताः सन्ति, तद्वारा सर्वाणि कार्याणि सिध्यन्ति। यदा ये जीवाः। शरीराणि त्यक्त्वा यस्य यमस्य स्थानं गच्छन्ति स कोऽस्तीति पृच्छयते। अत्रोत्तरमन्तरिक्षस्थं वायुं यमाख्यं गच्छन्तीति ब्रूयात्। यथा युद्धे रथस्य भृत्यादीन्यङ्गान्युपतिष्ठन्ति। तथैव मृता जीविताश्च जीवा वायुमाश्रित्य तिष्ठन्ति। पृथिवीचन्द्रतारकादयो लोकाः सूर्यप्रकाशमुपाश्रित्य वर्तन्ते। यो विद्वान् स एव प्रश्नोत्तराणि वदेन्नेतरो मूढः। नैव मनुष्यैरविद्वत्कथने विश्वसितव्यं न किलाप्तशब्दऽ श्रद्धातव्यं चेति॥६॥
पदार्थ:-हे विद्वान्! तू (रथ्यम्) रथ आदि के चलाने योग्य (आणिम्) संग्राम को जीतने वाले राजभृत्यों के (न) समान इस (सवितुः) सूर्यलोक के प्रकाश में जो (तिस्रः) तीन अर्थात् (द्यावः) सूर्य, अग्नि और विद्युत् रूप के साधनों से युक्त (अधितस्थुः) स्थित होते हैं उनमें से (द्वौ) दो प्रकाश वा भूगोल सूर्य मण्डल के (उपस्था) समीप में रहते हैं और (एका) एक (विराषाट्) शूरवीर ज्ञानवान् प्राप्ति स्वभाव वाले जीवों को सहने वाली बिजुली रूप दीप्ति (यमस्य) नियम करने वाले वायु के (भुवने) अन्तरिक्ष में ही रहती है और जो (अमृता) कारणरूप से नाशरहित चन्द्र, तारे आदि लोक हैं, वे इस सूर्य लोक के प्रकाश में प्रकाशित होकर (अधितस्थुः) स्थित होते हैं (यः) जो मनुष्य (ॐ) वाद-विवाद से इनको (चिकेतत्) जाने और इस ज्ञान को (ब्रवीतु) अच्छे प्रकार उपदेश करे, उसी के समान हो के हम को सद्गुणों का उपदेश किया कर॥६॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिस ईश्वर ने अग्निरूप कारण से सूर्य अग्नि और बिजुली रूप तीन प्रकार की दीप्ति रची है, जिनके द्वारा सब कार्य सिद्ध होते हैं। जब कोई ऐसा पूछे कि जीव अपने शरीरों को छोड़ के जिस यम के स्थान को प्राप्त होते हैं, वह कौन है, तब उत्तर देने वाला अन्तरिक्ष में रहने वाले वायु को प्राप्त होते हैं, ऐसा कहे। जैसे युद्ध में रथ, भृत्य आदि सेना के अङ्गों में स्थित होते हैं, वैसे मरे और जीते हुए जीव वायु के अवलम्ब से स्थित होते हैं। पृथिवी चन्द्रमा और नक्षत्रादि लोक सूर्य प्रकाश के आश्रय से स्थित होते हैं, जो विद्वान् हो, वही प्रश्नों के उत्तर कह सकता है, मूर्ख नहीं। इसलिये मनुष्यों को मूर्ख अर्थात् अनाप्तों के कहने में विश्वास और विद्वानों के कथन में अश्रद्धा कभी न करनी चाहिये॥६॥
पुनरस्य सूर्यलोकस्य गुणा उपदिश्यन्ते॥
फिर इस सूर्यलोक के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।