रायस्प॑र्धि स्वावोऽस्ति हि तेऽग्नै दे॒वेष्वायम्।
त्वं वाज॑स्य॒ श्रुत्य॑स्य राजसि स नों मूळ महाँ असि॥१२॥
रायः। पूर्धि। स्वधाऽवः। अस्ति। हि। ते। अग्ने। देवेषु। आप्यम्। त्वम्। वाजस्य। श्रुत्य॑स्य। राजसि। सः। नः। मृळ। महान्। असि॥ १२॥
पदार्थ:-(रायः) विद्यासुवर्णचक्रवर्त्तिराज्यादिधनानि (पूर्धि) पिपूर्धि। अत्र बहुलं छन्दसि (अष्टा० २.४.७३) इति शपो लुक्। श्रुशृणुपृ० (अष्टा०६.४.१०२) इति हेधिः। (स्वधावः) स्वधा भोक्तव्या अन्नादिपदार्थाः सन्ति यस्य तत्सम्बुद्धौ (अस्ति) (हि) यतः (ते) तव (अग्ने) अग्निवत्तेजस्विन् (देवेषु) विद्वत्सु (आप्यम्) आप्तुं प्राप्तुं योग्यं सखित्वम्। अत्र आप्लू व्याप्तावित्यस्मादौणादिको यत्। सायणाचार्येण प्रमादाददुपधत्वाभावेऽपि पोरदुपधात् इति कर्मणि यत्। यतो नाव (अष्टा०६.१.२१०) इत्यायुदात्तत्वम् यच्च छान्दसमायुदात्तत्वमित्यशुद्धमुक्तम्। औणादिकस्य यत्प्रत्ययस्य विद्यमानत्वात् (त्वम्) पुत्रवत्प्रजापालकः (वाजस्य) युद्धस्य (श्रुत्यस्य) श्रोतुं योग्यस्य। श्रु श्रवण इत्यस्मादौणादिक: कर्माणि क्यप् प्रत्ययः। (राजसि) प्रकाशितो भवसि (स:) (न:) अस्मान् (मृड) सुखय (महान्) बृहद् गुणाढ्य: (असि) वर्त्तसे॥१२॥
अन्वयः-हे स्वधावोऽग्ने! हि यतस्ते देवेष्वाप्यमस्ति रायस्पूर्धि। यस्त्वं महानसि श्रुत्यस्य वाजस्य च मध्ये राजसि, स त्वं नोऽस्मान् मृड सुखयुक्तान् कुरु।।१२॥
भावार्थ:-वेदवित्सु विद्यावृद्धिषु मैत्री भावयद्भिः सभाध्यक्षादिराजपुरुषैरन्नधनादिपदार्थागारान् सततं प्रपूर्य प्रसिद्धेर्दस्युभिस्सह युद्धाय समर्था भूत्वा प्रजायै महान्ति सुखानि दातव्यानि॥१२॥ ___
पदार्थ:-हे (स्वधावः) भोगने योग्य अन्नादि पदार्थों से युक्त (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्वी सभाध्यक्ष! (हि) जिस कारण (ते) आपकी (देवेषु) विद्वानों के बीच में (आप्यम्) ग्रहण करने योग्य मित्रता (अस्ति) है, इसलिये आप (रायः) विद्या, सुवर्ण और चक्रवर्त्ति राज्यादि धनों को (पूर्धि) पूर्ण कीजिये जो आप (महान्) बड़े-बड़े गुणों से युक्त (असि) हैं और (श्रुत्यस्य) सुनने के योग्य (वाजस्य) युद्ध के बीच में प्रकाशित होते हैं (सः) सो (त्वम्) पुत्र के तुल्य प्रजा की रक्षा करनेहारे आप (न:) हम लोगों को (मृड) सुखयुक्त कीजिये।।१२।___
भावार्थ:-वेदों को जानने वाले उत्तम विद्वानों में मित्रता रखते हुए सभाध्यक्षादि राजपुरुषों को उचित है कि अन्न, धन आदि पदार्थों के कोशों को निरन्तर भर और प्रसिद्ध डाकुओं के साथ निरन्तर युद्ध करने को समर्थ होके प्रजा के लिये बड़े-बड़े सुख देने वाले होवें।॥१२॥
पुन: स कथंभूत इत्युपदिश्यते॥
फिर वह सभाध्यक्ष कैसा होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।