मा नो मर्ता अभिद्रुहन् त॒नूनामिन्द्र गिर्वणः।
ईशानो यवया वधम्॥१०॥१०॥
मा। नः। मर्ताः। अभि। दुहुन्। तनूनाम्। इन्द्र। गिर्वणः। ईशानः। यवय। वधम्॥१०॥
पदार्थ:-(मा) निषेधार्थे (न:) अस्माकमस्मान्वा (मर्ताः) मरणधर्माणो मनुष्याःमर्ता इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (अभिद्रुहन्) अभिद्रुह्यन्त्वभिजिघांसन्तु। अत्र व्यत्ययेन शो लोडर्थे लुङ् च। (तनूनाम्) शरीराणां विस्तृतानां पदार्थानां वा (इन्द्र) सर्वरक्षकेश्वर! (गिर्वणः) वेदशिक्षाभ्यां संस्कृताभिर्गीर्भिर्वन्यते सम्यक् सेव्यते यस्तत्सम्बुद्धौ (ईशानः) योऽसावीष्टे (यवया) मिश्रयप्रातिपदिकाद्धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्चेति यवशब्दाद्धात्वर्थे णिच्। अन्येषामपि दृश्यते। (अष्टा०६.३.१३७) इति दीर्घः। (वधम्) हननम्॥१०॥
अन्वयः-हे गिर्वणः सर्वशक्तिमन्निन्द्र परमेश्वर! ईशानस्त्वं नोऽस्माकं तनूनां वधं मा यवय। इमे मर्ताः सर्वे प्राणिनोऽस्मान् मा अभिदुहन् मा जिघांसन्तु॥१०॥ __
भावार्थ:-नैव कोऽपि मनुष्योऽन्यायेन कंचिदपि प्राणिनं हिंसितुमिच्छेत्, किन्तु सर्वैः सह मित्रतामाचरेत्। यथेश्वर: कंचिदपि नाभिदुह्यति, तथैव सर्वैर्मनुष्यैरनुष्टातव्यमिति॥१०॥ अनेन पञ्चमेन सूक्तेन मनुष्यैः कथं पुरुषार्थः कर्त्तव्यः सर्वोपकारश्चेति चतुर्थेन सूक्तेन सह सङ्गतिरस्तीति विज्ञेयम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्यादिभिर्विलसनाख्यादिभिश्चान्यथार्थ वर्णितम्॥ ____
इति पञ्चमं सूक्तं दशमश्च वर्गः समाप्तः॥
पदार्थ:-हे (गिर्वणः) वेद वा उत्तम-उत्तम शिक्षाओं से सिद्ध की हुई वाणियों करके सेवा करने योग्य सर्वशक्तिमान् (इन्द्र) सब के रक्षक (ईशानः) परमेश्वर! आप (नः) हमारे (तनूनाम्) शरीरों के (वधम्) नाश दोषसहित (मा) कभी मत (यवय) कीजिये, तथा आपके उपदेश से (मर्ताः) ये सब मनुष्य लोग भी (नः) हम से (मा) (अभिद्रुहन्) वैर कभी न करें।।१०।___
भावार्थः-कोई मनुष्य अन्याय से किसी प्राणी को मारने की इच्छा न करे, किन्तु परस्पर मित्रभाव से वर्ते, क्योंकि जैसे परमेश्वर विना अपराध से किसी का तिरस्कार नहीं करता, वैसे ही सब मनुष्यों को भी करना चाहिये।।१०।
इस पञ्चम सूक्त की विद्या से मनुष्यों को किस प्रकार पुरुषार्थ और सब का उपकार करना चाहिये, इस विषय के कहने से चौथे सूक्त के अर्थ के साथ इसकी सङ्गति जाननी चाहिये। इस सूक्त का भी अर्थ सायणाचार्य आदि और डाक्टर विलसन आदि साहबों ने उलटा किया है।
यह पाँचवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ