इन्द्र इद्धाः सा सम्मिश्ल आ वायुा
इन्द्रो वज्री हिरण्ययः॥२॥
इन्द्रःइत्। होः। सा। संऽमिश्लः। आ। वचःऽयुा। इन्द्रः। वज्री। हिरण्ययः॥२॥
पदार्थ:-(इन्द्रः) वायुः (इत्) एव (हर्यो:) हरणाहरणगुणयोः (सचा) समवेतयोः (संमिश्ल:) पदार्थेषु सम्यक् मिश्री मिलितः सन्। संज्ञाछन्दसोर्वा कपिलकादीनामिति वक्तव्यम्। (अष्टा०८.२.१८) अनेन वार्तिकेन रेफस्य लत्वादेशः(आ) समन्तात् (वचोयुजा) वाणीर्योजयितोः। अत्र सुपां सुलुगिति षष्ठीद्विवचनस्याकारादेशः। (इन्द्रः) सूर्यः (वज्री) वज्रः सम्वत्सरस्तापो वास्यास्तीति सः। संवत्सरो हि वज्रः। (श० ब्रा०३.३.५.१५) (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयःऋत्व्यवासव्य० (अष्टा०६.४.१७५) अनेन हिरण्यमयशब्दस्य मलोपो निपात्यते। ज्योतिर्हि हिरण्यम्। (श० ब्रा०४.३.१.२१)॥२॥
अन्वयः-यथाऽयं संमिश्ल इन्द्रो वायुः सचा सचयोर्वचोयुजा वचांसि योजयतोर्होर्यो गमनागमनानि युनक्ति तथा इत् एव वज्री हिरण्यय इन्द्रः सूर्यलोकश्च॥२॥
भावार्थ:-अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुयोगेनैव वचनश्रवणव्यवहारसर्वपदार्थगमनागमनधारणस्पर्शाः सम्भवन्ति तथैव सूर्यायोगेन पदार्थप्रकाशनछेदने च। 'संमिश्लः' इत्यत्र सायणाचार्येण लत्वं छान्दसमिति वार्तिकमविदित्वा व्याख्यातम्, तदशुद्धम्॥२॥
पदार्थ:-जिस प्रकार यह (संमिश्लः) पदार्थों में मिलने तथा (इन्द्रः) ऐश्वर्य का हेतु स्पर्शगुणवाला वायु, अपने (सचा) सब में मिलनेवाले और (वचोयुजा) वाणी के व्यवहार को वर्त्तानेवाले (हर्योः) हरने और प्राप्त करनेवाले गुणों को (आ) सब पदार्थों में युक्त करता है, वैसे ही (वज्री) संवत्सर वा तापवाला (हिरण्ययः) प्रकाशस्वरूप (इन्द्रः) सूर्य भी अपने हरण और आहरण गुणों को सब पदार्थों में युक्त करता है।२॥
भावार्थ:-इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु के संयोग से वचन, श्रवण आदि व्यवहार तथा सब पदार्थों के गमन, आगमन, धारण और स्पर्श होते हैं, वैसे ही सूर्य के योग से पदार्थों के है, सो उनकी भूल है, क्योंकि 'संज्ञाछन्द०' इस वार्त्तिक से लकारादेश सिद्ध ही है।॥२॥
अथ केन किमर्थः सूर्यलोको रचित इत्युपदिश्यते।
इसके अनन्तर किसने किसलिये सूर्य्यलोक बनाया है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है