सं माग्ने वर्चसा सृज़ सं प्र॒जया समायुषा।
विद्युमें अस्य देवा इन्द्रौ विद्यात् स॒ह ऋषिभिः॥२४॥१२॥५॥
सम्। मा। अग्ने। वर्चसा। सृज। सम्। प्रजया। सम्। आयुषा। विद्युः। मे। अस्य। दे॒वाः। इन्द्रः। विद्यात्। सह। ऋषिऽभिः॥२४॥
पदार्थ:-(सम्) योगार्थे (मा) माम् (अग्ने) विद्युदाख्यः (वर्चसा) दीप्त्या (सृज) सृजति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (सम्) मेलनार्थ (प्रजया) सन्तानादिना (सम्) एकीभावे (आयुषा) जीवनेन (विद्युः) विदन्ति। अत्र लडथै लिङ्। (मे) मम जीवस्य (अस्य) मनुष्यपशुवृक्षादिस्थस्य (देवाः) विद्वांसः (इन्द्रः) परमेश्वरः (विद्यात्) वेत्ति। अत्र लडथै लिङ्। (सह) सङ्गार्थे (ऋषिभिः) विचारशीलैर्मन्त्रार्थदृष्टिभिः॥२४॥
अन्वयः-मनुष्यैषिभिः सह देवाः विद्वांसः परमात्मा च यदग्ने अग्निवर्चसा प्रजयाऽऽयुषा मा मां सृजति संयुनक्ति, यन्मे मम पापपुण्यात्मकं कर्म जन्मनः कारणं विद्युर्विदन्ति विद्यात् वेत्ति च तस्मान्मया तत्सङ्गस्तदुपासना च नित्यं कार्या।।२४॥
भावार्थ:-यदा जीवः पूर्व शरीरं त्यक्त्वोत्तरं प्राप्नोति तदा तेन सह यः स्वाभाविको मानसोऽग्निर्गच्छति स एव पुनः शरीरादिकं प्रकाशयति जीवानां यत्पापं पुण्यं च जन्मकारणमस्ति तदृषिसहिता विद्वांसो जानन्ति नेतरे, परमेश्वरस्तु खलु यथार्थतया सर्व विदित्वा स्वस्वकर्मानुसारेण जीवान् शरीरसंयुक्तान् कृत्वा फलं भोजयतीति।।२४॥ __
पूर्वसूक्तेनोक्तैरश्व्यादिभिर्वाय्वादीनामनुषङ्गीणामत्रोक्तत्वाद् द्वाविंशेनातीतेन सूक्तार्थेन सहास्य त्रयोविंशस्य सूक्तोक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥ ___
इति प्रथमाष्टके द्वितीयध्याये द्वादशो वर्ग: प्रथममण्डले त्रयोविंशं सूक्तं पञ्चमोऽनुवाकश्च समाप्तः॥
पदार्थ:-मनुष्यों को योग्य है कि जो (ऋषिभिः) वेदार्थ जानने वालों के (सह) साथ (देवाः) विद्वान् लोग और (इन्द्रः) परमात्मा (अग्ने) भौतिक अग्नि (वर्चसा) दीप्ति (प्रजया) सन्तान आदि पदार्थ और (आयुषा) जीवन से (मा) मुझे (संसृज) संयुक्त करता है उस और (मे) मेरे (अस्य) इस जन्म के कारण को जानते और (विद्यात्) जानता है, इससे उनका संग और उसकी उपासना नित्य करें।।२४॥
भावार्थ:-जब जीव पिछले शरीर को छोड़कर अगले शरीर को प्राप्त होता है, तब उसके साथ जो स्वाभाविक मानस अग्नि जाता है, वही फिर शरीर आदि पदार्थों को प्रकाशित करता है, जो जीवों के पाप-पुण्य और जन्म का कारण है, उसको वे (ऋषि और विद्वान्) ही परमेश्वर के सिवाय जानते हैं, किन्तु परमेश्वर तो निश्चय के साथ यथायोग्य जीवों के पाप वा पुण्य को जानकर, उनके कर्म के अनुसार शरीर देकर, सुख दःख का भोग कराता ही हैं।॥२४॥
पूर्व सूक्त से कहे हुए अश्वि आदि पदार्थों के अनुषङ्गी जो वायु आदि पदार्थ हैं, उनके वर्णन से पिछले बाईसवें सूक्त के अर्थ के साथ इस तेईसवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये।
१ मण्डल दूसरे २ अध्याय में १२ बारहवां वर्ग ५ पांचवां अनुवाक और यह तेईसवां सूक्त समाप्त हुआ।।