1937 में ज्ञानवापी परिसर पर नमाज पढ़ने की अनुमति नहीं दी थी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने

ऐसे शुरू हुआ विवाद। विवाद की शुरुआत 1098 से 1585 ईस्वी के बीच होने की पुष्टि होती है। पहले दो बार टूटा मंदिरपहले मोहम्मद गौरी ने फिर महमूद शाह ने तोड़ा मंदिर। 1447 में दूसरी बार जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तोड़ा मंदिर। 1098 में राजा हरिश्चंद्र ने मंदिर बनवाया। 1194 में पहली बार मोहम्मद गौरी ने मंदिर लूटा और तोड़ा 1194 में मंदिर को स्थानीय लोगों ने फिर से बनवाया। 1585 में राजा टोडरमल ने नारायण भट्ट के साथ मिलकर मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया। 1632 से 1735 ईस्वी में तीसरी बार मंदिर को तोड़ने का काम औरंगजेब के काल में हुआ। औरंगजेब ने 1632 में विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने के लिए सेना भेजी थी, लेकिन हिंदुओं के विरोध की वजह से यह लौट गई।1632 में विश्वनाथ मंदिर तो नहीं टूटा, लेकिन काशी के अन्य 60 से ज्यादा मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया। 1669 में औरंगजेब बनारस आया और काशी में मौजूद भव्य विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का आदेश जारी किया।1669 में तीसरी बार मंदिर को तोड़ा गया और उसी साल ज्ञानवापी परिसर में औरंगजेब ने मस्जिद बनवाई। 1735 में इंदौर की महारानी देवी अहिल्याबाई ने ज्ञानवापी परिसर के पास दूसरे काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवायाजहां महारानी देवी अहिल्याबाई ने खुद शिवलिंग की स्थापना की। 1832 में मस्जिद की दीवार पर मंदिरनुमा कलाकृति मिलने की बात सामने आई।

 

मंदिर को तोड़कर बनाया गया ढांचा मस्जिद

  पांच महिलाओं ने काशी विश्वनाथ मंदिर के बगल में बनी ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर में स्थित श्रृंगार गौरी मंदिर में पूजा करने की इजाजत देने को लेकर वाराणसी कोर्ट में गुहार लगाई थी. महिलाओं की मांग पर कोर्ट ने यहां सर्वे कराने का आदेश दिया था. 

शिवलिंग मिलने का दावा करने के बाद परिसर को सील कर दिया गया है. ये मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गया है. वहीं, अल्पसंख्यक कांग्रेस के अध्यक्ष शाहनवाज आलम ने बताया कि 1937 में बनारस कोर्ट ने तय कर दिया था कि कितनी जमीन मस्जिद की होगी और कितनी मंदिर की. उन्होंने सवाल उठाया कि क्या 1937 में वहां शिवलिंग नहीं था? और जब तब वहां शिवलिंग नहीं था तो अब कैसे मिल गया?

क्या था 1937 का फैसला?

- वाराणसी में ज्ञानवापी परिसर को लेकर सबसे पहला मुकदमा 1936 में दीन मोहम्मद बनाम राज्य सचिव का था. तब दीन मोहम्मद ने निचली अदालत में याचिका दायर कर ज्ञानवापी मस्जिद और उसकी आसपास की जमीनों पर अपना हक बताया था. अदालत ने इसे मस्जिद की जमीन मानने से इनकार कर दिया था.

- इसके बाद दीन मोहम्मद ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की. 1937 में हाईकोर्ट ने मस्जिद के ढांचे को छोड़कर बाकी सभी जमीनों पर वाराणसी के व्यास परिवार का हक जताया और उनके पक्ष में फैसला दिया. बनारस के तत्कालीन कलेक्टर का नक्शा भी इस फैसले का हिस्सा बना, जिसमें ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने का मालिकाना हक व्यास परिवार को दिया गया.

- हालांकि, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव खालिद सैफुल्लाह रहमानी का दावा है कि उस फैसले में कोर्ट ने गवाही और दस्तावेजों के आधार पर फैसला दिया था कि पूरा परिसर (ज्ञानवापी मस्जिद कॉम्प्लेक्स) मुस्लिम वक्फ का है और मुस्लिमों को यहां नमाज पढ़ने का अधिकार है.

- रहमानी का दावा है कि उस फैसले में कोर्ट ने मंदिर और मस्जिद का क्षेत्रफल भी तय कर दिया था. इसके अलावा अदालत ने वजूखाने को मस्जिद की संपत्ति माना था. इसी वजूखाने में अब हिंदू पक्ष शिवलिंग मिलने का दावा कर रहा है.

1991 में फिर अदालत पहुंचा मामला

- इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद 1937 से 1991 तक ज्ञानवापी परिसर को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ. 15 अक्टूबर 1991 में ज्ञानवापी परिसर में नए मंदिर निर्माण और पूजा पाठ की इजाजत को लेकर वाराणसी की अदालत में याचिका दायर की गई.

- ये याचिका काशी विश्वनाथ मंदिर के पुरोहितों के वंशज पंडित सोमनाथ व्यास, संस्कृत प्रोफेसर डॉ. रामरंग शर्मा और सामाजिक कार्यकर्ता हरिहर पांडे ने दाखिल की. इनके वकील थे विजय शंकर रस्तोगी.

- याचिका में तर्क दिया गया कि काशी विश्वनाथ का जो मूल मंदिर था, उसे 2050 साल पहले राजा विक्रमादित्य ने बनवाया था. 1669 में औरंगजेब ने इसे तुड़वाकर यहां मस्जिद बनवा दी. 

- इस याचिका पर सिविल जज (सीनियर डिविजन) ने दावा चलने का आदेश दिया. इसे दोनों पक्षों ने सिविल रिविजन जिला जज के सामने चुनौती दी गई. अदालत ने सिविल जज के फैसले को निरस्त कर दिया और पूरे परिसर के सबूत जुटाने का आदेश दिया.

- इसके बाद ज्ञानवापी मस्जिद की देखरेख करने वाली अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंच गई. कमेटी ने दलील दी कि इस मामले में कोई फैसला नहीं लिया जा सकता, क्योंकि प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट के तहत इसकी मनाही है. हाईकोर्ट ने जिला जज के फैसले पर रोक लगा दी.